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श्रीवास व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा
८. मडम्ब
१
साढ़े तीन कोश तक जहाँ अन्य ग्राम न हो 'मडम्ब' दूसरी परिभाषा के अनुसार सभी प्रोर से आधे योजन से 'म्ब' कहा गया है । 3 प्रमेयरत्नमंजूषा की परिभाषा के अनुसार पांच सौ ग्रामों का उपजीव्य 'मडम्ब' कहलाता है । आदिपुराणकार ने भी 'मडम्ब' को पांच सौ ग्रामों से परिवेष्टित माना । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में 'मडम्ब' एक छोटे से गाँव को कहते होंगे तदनन्तर मध्ययुग में ये व्यापार के केन्द्र बन गए थे तथा लगभग पांच सौ ग्रामों का भरण-पोषण करने में समर्थ थे । प्रमेयरत्नमंजूषा में प्राचीन तथा मध्यकालीन प्रावासीय स्वरूप को देखते हुए ही 'मडम्ब' की परिभाषा दी गई है। ल्यूडर्स - तालिका संख्या - १२०० के शिलालेख में आया हुआ 'म्ब' लेनमैन महोदय के अनुसार जिले का केन्द्र स्थान था ।
६. पतन ७
२६१
एक
कहलाता है । दूर स्थित ग्राम को
उत्तराध्ययन की टीका ने 'पत्तन' को 'रत्नों की खान' के रूप में स्पष्ट किया
-
१. मडम्बखेटान्पुराणि राष्ट्रारिण बहून्यतीत्य । – वराङ्ग०, १२.४४ पुराकरग्राममडम्बखेडैः । - वराङ्ग०, १६.८६ तथा ३.४, ३१.५५ कर्बटानां मडम्बानाम् । – पद्मा० १६. १६७, तथा - खेटकर्व टमडम्बचयेन ।
(२) अर्ध व्यूत तृतीयान्तर्हितं मण्टपम् । - वही, पृ० ८
(३)
- प्रद्यु० ५.११
२. ( १ ) यस्य सर्वदिक्षुसार्ध तृतीययोजनान्तर्ग्रामो न स्यात् । - ( उत्तरा० टीका ), Jinist Studies, पृ० ८ पर उद्धृत ।
तृतीय व्यूतान्तर्ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा मडम्बानि ।
- पद्मा०, १७.१६७, पर प्रमेयरत्नमंजूषाटीका, पृ ३६२ ३. सर्वतोऽर्घयोजनात्परतोऽवस्थितग्रामरिण |- - ( कल्प० टीका ) Jinist Studies
पृ० ८ पर उद्धृत ।
४. प्रमेय रत्नमंजूषा - टीका, पद्मा०, १६.१६७, पृ० ३६२ पर उद्धृत । ५. मडम्बमामनन्ति ज्ञाः पञ्चग्रामशतीवृत्तम् । - आदि०, १६.१७२
६.
Epi. Ind. II, p. 484
७. पुराणि राष्ट्राणि च पत्तनानि । – वराङ्ग०, ११.६७, तथा २१.४८, ३१.५५ पत्तनाष्टचत्वारिंशत् सहस्राणां च शासिता । – पद्मा०, १६.१९६, ग्रामाकरद्रोरणमडम्बपत्तनान्यनेकशः । - वसन्त०, १३.४३