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________________ प्रावास-व्यवस्था, खान-पान तथा २५३ ३. निगम 'नगर' और 'ग्राम' आवासीय संस्थितियों के दो मुख्य प्रायाम रहे हैं। इन दोनों की मिश्रित आवासीय संचेतना 'निगम' के रूप में विकसित हुई है। प्रारम्भ में 'निगम' अर्धविकसित आवासीय संस्थिति के रूप में अवस्थित रहे थे। प्राचीन जैन एवं बौद्ध साहित्य से इसकी संपुष्टि होती है। मध्यकाल की आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में 'निगम' संचेतना अपने पूरे वेग से विकसित हुई जिसका जैन महाकाव्यों में विशेष वर्णन पाया है। इससे पहले कि मध्यकालीन 'निगम' संस्थिति के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला जाए यह निर्दिष्ट कर देना आवश्यक होगा कि के० पी० जयसवाल प्रभूति इतिहासकारों ने 'निगम' के अर्थ-निर्धारण को भ्रामक दिशा प्रदान की है इन इतिहासकारों ने 'श्रेष्ठि-सार्थवाह-कुलिक-निगम' नामक एक शिलालेखीय प्रमाण के आधार पर 'निगम' का 'व्यापारिक सङ्गठन' अर्थ किया है जिसके परिणाम स्वरूप अन्धानुगति से अनुसरण करते हुये परवर्ती अनेक इतिहासकारों ने 'निगम' के प्रावासपरक अर्थ की उपेक्षा करते हुए 'व्यापारिक सङ्गठन' अर्थ को स्वीकार कर लिया है जो सर्वथा अयुक्तिसङ्गत एवं तथ्यबिरुद्ध है। प्रो० पार० एस० शर्मा महोदय ने जैन महाकाव्यों में वर्णित 'निगम' को आवासीय 'ग्राम' के रूप में सामन्तवादी अर्थव्यवस्था का परिणाम माना है ।२ लेखक ने आगे आने वाले पृष्ठों में निगम' की इस समस्या का ऐतिहासिक दृष्टि से पुनर्विवेचन किया है और समग्र प्राचीन भारतीय वाङमय के प्रमाणों के आधार पर 'निगम' के 'व्यापारिक सङ्गठन' अर्थ के औचित्य को चुनौती दी है तथा उसकी एक विकसनशील आवासीय संस्थिति के रूप में पुष्टि की है । जैन संस्कृत महाकाव्यों में निगम-वर्णन आठवीं से दसवीं शती ई० के मध्य रचित जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'निगम' ग्राम के अर्थ में वर्णित हैं। धनंजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य (८वीं शती ई०) १. द्विस०, ४.४६, चन्द्र०, १.१६, २० १३३, ५.४, १३.४६, वर्ष०, ४.४, ५.३७, १०-११, धर्म०, १.४८ २. Sharma, R.S., Indian Feudalism Retouched (article), The Indian Historical Review, Vol. I, No 2, Sep. 1974, p. 326, fn. 4 ३. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० २६४ निगमान्निनादैः शिखण्डिनां सुभगान्धेनु हुकृतैरपि । स ददर्श वनस्य गोचरान् कृकवात्कृत्पतनक्षमान्नृपः । -द्विस०, ४.४६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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