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________________ २२६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज नगर सेठों का आर्थिक वैभव व्यापार करने वाले लोगों को सामान्यतया 'वरिणक' कहा जाता था। किन्तु इनके अधिपति के लिए 'सार्थनाथ'' 'सार्थनायक'२ 'सार्थाधिपति'3 'वरिणक्पति',४ 'वणिक्श्रेणिनाथ'५ आदि संज्ञानों का प्रयोग हुअा है। 'वरिणश्रेणिनाथ' विशेषण व्यापारियों के संघटित स्वरूप (guild) पर भी प्रकाश डालता है। 'सागरवृद्धि' जैसे सार्थवाहाधिपति धन धान्य सम्पन्न व्यापारी होते थे। प्रायः ये मूंगा, मोती, मणि, सोना, चांदी आदि बहुमूल्य वस्तुओं से सम्पन्न होते थे। सार्थपति सुन्दर वस्त्राभूषणों, सुगन्धित मालाओं आदि उपभोग्य वस्तुओं का सेवन करते थे। इनके अधीन जीविकोपार्जन करने वालों में युद्धकर्म-व्यवसायी सैनिक, हास्यादि ललित कलाओं के ज्ञाता, नट, नर्तक, सङ्गीतज्ञ, भाण्ड (स्वांग करने वाले) प्रादि होते थे । ये सभी लोग काफिले के साथ-साथ जाते थे। चोर दस्युओं द्वारा आक्रमण करने पर सैनिकों आदि से तथा वरिणकों के मनोरञ्जनार्थ नटों, नर्तकों आदि से आवश्यकतानुसार कार्य लिया जाता था। विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध जैन संस्कृत महाकाव्यों में विदेशी व्यापार द्वारा आयातित कतिपय वस्तुओं का उल्लेख पाया है। हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व के अनुसार नेपाल देश के 'रत्नकम्बल' प्रसिद्ध थे । कोशा नामक वेश्या द्वारा नेपाल के रत्नकम्बल के प्रति इच्छा प्रकट करने पर जैन मुनि द्वारा नेपाल जाकर 'रत्नकम्बल' लाने का उल्लेख आया है । 'रत्नकम्बल' का मूल्य एक लाख (मुद्राएं) कही गई हैं। यह कम्बल इतना हल्का तथा कोमल होता था कि इसे बांस की छड़ी में भी छिपाकर रखा जा सकता था।' पद्मानन्द महाकाव्य में भी 'मणिकम्बल' का उल्लेख आया है तथा १. वराङ्ग०, १३.८२ २. वही, १३.८५ ३. वही, १३.८१ ४. वही, १३.८७ ५. वही, १३.८८ ६. नेपालभूपो पूर्वस्मै साधवे रत्नकम्बलम् । -परि, ८.१५३, तथा चन्द्र०, ७२२, तथा वर्ध०, १४.३२ ७. परि० ८.१५४ ८. वही, ८.१५६ ६. वेश्याकृतेऽस्य वंशस्यान्तः क्षिप्तोरत्नकम्बलः । वही, ८.१६०
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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