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श्रर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय
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इसका मूल्य एक लाख दीनार कहा गया है । " शल्य चिकित्सा की दृष्टि से भी 'रत्नकम्बल' का विशेष महत्त्व रहता था । २
अनेक जैन महाकाव्यों में, 'चीनांशुक' (चीनी शिल्क) का उल्लेख मिलता है । 3 चालुक्यकालीन गुजरात के समय में भारत के चीन तथा जावा से घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध रहे थे । ४
नगरों के बाजार
उपभोगपरक विविध प्रकार की वस्तुनों के लिए जैन संस्कृत महाकाव्यों में वरित नगर विशेष रूप से समृद्ध रहे थे ।' नागरिकों द्वारा क्रय-विक्रय किये जाने के कारण इन नगरों में रात-दिन चहल-पहल रहती थी । ६ इन बाजारों को 'वणिक्पथ' (Market ) कहा गया गया हैं ७ तथा इनमें स्थित दुकानों को 'आपण' संज्ञा दी गई है। युद्ध प्रयाण के समय भी वणिक् वर्ग सेना के साथ-साथ जाता था तथा सैनिक पड़ावों पर कपड़े को तान कर अस्थायी दुकानें बनाई जाती थीं । चन्द्रप्रभचरित में इस प्रकार की दुकानों का उल्लेख श्राया है । १°
समृद्धि की दृष्टि से नगरों के बाजार प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट तथा सम्पन्न कहे गये हैं । प्रायः व्यापारी वर्ग नगर के लोगों की आवश्यकतानुसार वस्तुएं अपने पास रखते थे । ११ इन व्यापारियों की क्रय नीति तथा व्यावहारिक भाषा की भी
१. पद्मा०, ६.५६
२. वही, ६.८६
३. सच्चीनपटांशुककम्बलानि । - वरांग०, ७.२१
चित्रनेत्रपटचीनपट्टिका । - चन्द्र०, ७.२३, वर्ध०, २४.३२
Majumdar, A.K., Chaulukyas of Gujrat, Bombay, 1956 p. 268
४.
५. वराङ्ग०, १.३६, द्विस०, १.३२-३५
६.
नक्तं दिवं क्रयपरिक्रयसक्तमर्त्यम् । - वराङ्ग०, १.४०
७. afterथे खनिषु वनेषु । – द्विस० २.१३
८.
यदापणा भान्ति चतुः पयोधयः । द्विस०, १.३२
६. वणिग्भिरग्रगर्तः पटमयापरणराजितान्ताः । - चन्द्र०, १४.४४
१०.
११.
वही, १४.४४
तस्मिन्पुरे प्रतिवसत्सुलभं च वस्तु । -- वराङ्ग०, १.३९ तथा द्विस०, १.३४