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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
उड़द, कोद्रव (कौदों) आदि अनाजों की पैदावार मुख्य रूप से होती थी । सरसों कृष्ण तिल, चावल, जौ आदि अनाज पूजन विधियों में प्रयुक्त होते थे । २
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ईख - उत्पादन एक प्रमुख व्यवसाय
आलोच्य युग में ईख उत्पादन एक प्रमुख कृषि व्यवसाय भी रहा था । कर्नाटक आदि प्रदेशों में 'पुण्ड्रेक्षु' जाति की ईख पैदा होती थी । यह ईख लाल रङ्ग की होती है । * ईखों के बड़े वन होते थे । ' उद्यानों आदि में भी ईख की पैदावार की जाती थी । ६ ईख का रस अत्यधिक लोकप्रिय पेय बना हुआ था । ७ ईख द्वारा गुड़, शक्कर, खाण्ड आदि बनती थी । इस कार्य के लिए ग्रामों में विशेषकर 'निगम' ग्रामों में 'ईक्षुयन्त्र' स्थापित किए गये थे । ईक्षु-यन्त्र निरन्तर गन्ना पेरने का कार्य करते थे । तदनन्तर इससे बनी गुड़ आदि वस्तुनों को विक्रय के लिये गाड़ियों द्वारा नगर आदि तक ले जाया जाता था । १० उत्पादन के साथ-साथ ईख उत्पादन भी विशेष उन्नति पर था । ईक्षु-यन्त्रों आदि के विद्यमान रहने आदि तथ्यों के आधार पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में 'ईख उत्पादन' कृषि व्यवसाय की तुलना में एक स्वतन्त्र व्यवसाय के रूप में भी विकसित हो चुका था । बगीचों में उत्पन्न होने वाली शाक-सब्जियाँ
इस प्रकार अनाज प्रत्येक ग्राम में
महाकाव्यों में अनेक स्थलों पर शाक-सब्जियों से समृद्ध बगीचों का उल्लेख आया है । सब्जियों के बंगीचों के लिये 'शाक - वाटक' शब्द का प्रयोग किया गया
१. क्वचित्सगोघूमय वातसीतिलाः । - वराङ्ग०, २१.४१,
तेषु माषचरणातसीतिलब्रीहि शालियवमुद्गकोद्रवान् । —चन्द्र०, ७.१६, तथा द्वया०, ३.१४१, १५.७१
२. वरांग०, २३.१८
३. बराङ्ग०, २१.४१, वर्ध०, १.१०
४. द्वारकाप्रसाद शर्मा, चतुर्वेदी, संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ इलाहाबाद, १६६७,
पृ० ७१७
५. वराङ्ग०, २१.४१
६. यत्रेक्षुवाटा गुरवोपि भूमौ । ग्रामे चेक्षुवाटा: । त्रिषष्टि०, २.१.११
७. कीर्ति०, ६.१४
- प्र०, १.११, वर्ध०, १.१० तथा ग्रामे -
द्विस०, १०.१, धर्म०, ४.७, वर्ध ०,
८. कीर्ति ०, ६.३७ ६. वर्ध०, ४.४.६
१०. वही, ४.४
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