________________
२१०
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
१
प्राणित रही थी । जैन संस्कृत महाकाव्यों में लहलहाती फसल का वर्णन आया है । " कृषि - सम्पदा के लिए अनेक देश तो विशेष रूप से प्रसिद्ध थे । अधिकांश रूप से कृषि ग्रामों को 'निगम' के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त थी। इन निगमों के खलिहान सदैव ऊँचे-ऊँचे अनाज के ढेरों से भरे रहते थे । 3 फसल काटने, जुताई करने, रुपाई करने आदि विभिन्न कृषि सम्बन्धी गतिविधियों का भी सजीव चित्रण हुआ है । अहीरबालिकाओं द्वारा गीत गाकर फसल की रक्षा करने का वर्णन भी प्रस्तुत होता है । " पङ्कमय भूमि में धान के अच्छे होने जैसी मान्यताओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है । ६ समय पर हुई वर्षा को कृषि के लिए बहुत अच्छा समझा जाता था । ७ धान्य वृद्धि के लिए सूर्य की गरमी आवश्यक थी । किन्तु वृक्ष की छाया हानिकारक समझी जाती थी। 5 फसल काटने के बाद इसे ग्राम के निकटतम खलिहानों में जमा कर दिया जाता था । तदनन्तर बैलों द्वारा अनाज को श्रीर भूसे को पृथक् किया जाता था । १° अनाज को सुरक्षित रखने के लिये बड़े-बड़े कुम्भों का प्रयोग होता था । ११ गाड़ियों द्वारा अनाज ढोने आदि के उल्लेख भी मिलते हैं । १२
१. वराङ्ग०, २१.४२, जयन्त०, १.३७
२. वर्ध ०, १.६, चन्द्र०, १.१३
३. चन्द्र०, १.१६, धर्म०, १.४८, वर्ध०, ४.४
४. द्विस० २.२३, तथा आदि०, २६.११२-१३
५. यत्राभिरामाणि विशालशालिक्षेत्राणि संरक्षितुमीयुषीणाम् । गोपाङ्गनानां मधुरोपगीतैः कृच्छ्राद्युवानः पथि यान्ति पन्थाः ।
निरुन्धते गीतगुणेन गोप्यः क्षेत्रेषु यत्रानिशमेणयूथम् ।
तथा तु० - प्रादि०, २६.११५-२०
— जयन्त०, १.३७
भारेण स्तनकलशद्वयस्य यस्मिन्नुत्थातुं मुहुरसहा विदग्धगोप्यः । गीतेन स्फुटकलमाग्रमञ्जरीणां लुण्ठाकं हरिणगणं विमोहयन्ति ।
६. द्विस०, २.२३
परि०, १.१२
७.
८. द्विस०, ४.१६
नेमि०, १.३१
१२. गन्त्री चयचीत्कारविभिन्नकर्णरन्ध्रः । वर्ध०, ४.४
—चन्द्र०, १६.२
ε.
चन्द्र०, १३.४६, चन्द्र०, १.१६, धर्म ०, १.३८, वर्ध०, १.११ १०. परिपुञ्जितसस्य कूटकोटीनिकटालुञ्चि वृषैवभूषितोयः । वर्ध०, ४.४ ११. अध्यासिता गोधनभूतिमद्भिः कुटुम्बिभिः कुम्भसहस्रधान्यैः ।
- वर्ध ० १.११