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________________ २०८ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज 'कारु' शूद्र भी दो भागों में विभक्त थे। प्रथम वे जो समाज में अस्पृश्य माने जाते थे। ये समाज से बाहर रहते थे। दूसरे वे शूद्र जो स्पृश्य थे तथा समाज में ही रहते थे नाई आदि जातियाँ इसके अन्तर्गत आती थीं।' इस प्रकार हवीं शताब्दी तक वैश्य एवं शूद्र क्रमश; कृषि आदि तथा शिल्पी आदि व्यवसायों की दृष्टि से ही विभक्त हो चुके थे। किन्तु इन शूद्रों में भी 'कार' नामक स्पृश्य शूद्र अस्पृश्य शूद्रों से कुछ उत्कृष्ट समझे जाते थे। इसीलिए ११वीं शताब्दी में अलबेरुनी ने वैश्यों के साथ उठने बैठने वाले जिन शूद्रों की चर्चा की है वे सम्भवतः स्पृश्य शूद्र ही रहे होंगे ।२ १२वीं-१३वीं शताब्दी में वैश्यों तथा शूद्रों में प्रचलित व्यवसायों की दृष्टि से हेमचन्द्र कृत अभिधान चिन्तामणि में प्रयुक्त 'कार'3 तथा 'कुटुम्बी' शब्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अभिधान चिन्तामणि ने 'कारु' को 'शिल्पी' संज्ञा दी है। आदिपुराण के अनुसार नवीं शताब्दी में वे ही 'कारु' स्पृश्य शूद्र कहे जाते थे। इसी प्रकार अभिधान० में कृषि कर्म करने वाले लोगों के लिये 'कुटुम्बी' शब्द का पारिभाषिक प्रयोग भी हुआ है । पार एस. शर्मा महोदय ने हेमचन्द्र की अभिधान चिन्तामणि में पाए 'कुटुम्बी' शब्द की ओर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हुए कहा है कि मध्यकालीन भारत में शूद्र कृषि एवं पशुपालन उद्योग करने लगे थे तथा इससे कुछ पहले उत्तर प्रदेश तथा विहार की 'कुमि' एवं महाराष्ट्र की 'कुन्वि' नामक शूद्र जातियाँ मध्यकालीन भारत की 'कुटुम्बियों' की ही पूर्व रूप रहीं थीं। स्कन्दपुराण में 'गृहस्थ' नामक शूद्र अन्न देने वाले (अन्नदा) कहे गये हैं । ८ हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणि के अतिरिक्त त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में भी अनेक स्थलों १. कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्युः कर्तकादयः ।। -पादि० १६.१८६ २. Sharma, R.S., 'Social Changes in Early Medieval India', p. 11 ३. अभिधान०, ३ ८६ ४. वही, ३.८६० ५. तु०-कारुस्तुकारी प्रकृतिः शिल्पी श्रेणिस्तु तद्गणः । -अभि०, २.८६० ६. तु०-कुटुम्बी कर्षक: क्षेत्री। -वही, ३.८६० ७. Sharma, R.S., 'Social Changes in Early Medieval India', p. 11 ८. स्कन्द०, २.३६.१६१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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