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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज कृषि, पशुपालन, शिल्प तथा वाणिज्य प्रादि के लिए प्रयुक्त होता था तथा इसके अधिकारी वैश्य अथवा शूद्र वर्ग ही माने गये हैं।' श@जय महाकाव्य में कृषक, सेवक, कुम्हार, व्यापारी, नियोगी (पुरोहित), क्षत्रिय, सूत्रकार (जुलाहा), शिल्पी, स्वर्णकार, चित्रकार, मणिकार (जौहरी) आदि व्यवसायों का उल्लेख जातियों के रूप में होने के कारण यह सिद्ध हो जाता है कि आलोच्य काल में आर्थिक-विभाजन का मुख्य आधार वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था बन चुकी थी तथा वह भी ऐसी रूढ़ व्यवस्था जिसमें कर्म की अपेक्षा जन्म का अधिक महत्त्व था। इस प्रकार किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने कुलोचित व्यवसाय को अपनाने के लिए सामाजिक दृष्टि से पूर्णतः बाध्य था। किन्तु ऐसी सूचना भी मिलती है कि मुगल काल में वंशानुगत व्यवसाय चयन पर ढील दी जाने लगी थी। आलोच्यकाल की आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में वर्णव्यवस्थामूलक व्यवसायों की स्थिति इस प्रकार रही थी(क) ब्राह्मण तथा पौरोहित्य व्यवसाय
___ जैन महाकाव्यों में ब्राह्मणों द्वारा चारों वेदों, षडङ्गों तथा इतिहास-पुराण में नैपुण्य प्राप्त करने के उल्लेख मिलते हैं ।४ असग के वर्धमानचरित से भी ज्ञात होता है कि समाज में ब्राह्मण अग्निहोत्री कहलाते थे ।५ अग्निभूति नामक ब्राह्मण ऐसा ही एक ब्राह्मण था । जयन्त-विजय महाकाव्य में राज-सभा में एक ब्राह्मण द्वारा दर्शन-पाण्डित्य प्रदर्शन करने का भी उल्लेख आया है। ब्राह्मण विविध प्रकार की तपश्चर्या, शील, गुण, ज्ञानार्जन तथा ज्ञान-वितरण के लिए प्रसिद्ध थे। हेमचन्द्र के काल में ब्राह्मणों के लिए, 'श्रोत्रिय', 'स्मार्त, 'मौहूर्तक' आदि संज्ञाओं का
१. भवन्ति वैश्याः शूद्राश्च कलाकौशलजीविनः ।
-पद्मा०, ७.५३ २. कर्षका: सेवकाः कुम्भकारा वाणिज्यजीविनः ।
नियोगिनः क्षत्रियाश्च सूत्रकाराश्च शिल्पिनः । स्वर्णकाराश्चित्रकारा मणिकारास्तथापरे ।
-शत्रु०, ३.१२७ ३. जयशङ्कर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ० ११२ ४. प्रद्युम्न, ६.२०३, वराङ्ग०, २५.७० ५. वर्ध०, ३.८६ ६. वही, ३.८६ ७. जयन्त०, १५.१५ ८. वराङ्ग०, २५.४३; वर्ध०, ३.६८