SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय २०५ प्रयोग किया गया है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि वर्ग-चेतना की भावना से ब्राह्मण पौरोहित्य आदि व्यवसाय करते थे । सन्ध्या-कर्म, आचरण एवं वैदिक विधियों को त्याग देने वाले मिथ्या ब्राह्मणों का भी उल्लेख मिलता है । इस प्रकार प्रचार, शील एवं शास्त्र ज्ञान के कारण ही समाज में ब्राह्मणों का गौरव रहा था । 3 विवाह सम्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान कराना, श्राद्ध कर्म श्रादि ब्राह्मणों के प्रमुख व्यवसाय थे । ब्राह्मणों को बदले में दक्षिणा आदि दी जाती थी। समाज में पौरोहित्य कर्म करने वाले ब्राह्मणों का यद्यपि विशेष सम्मान रहा था तथापि सातवीं प्राठवीं शताब्दी में कर्नाटक आदि जैन धर्म से प्रभावित प्रदेशों में ब्राह्मणों को जीविकोपार्जन के लिए बहुत संघर्ष भी करना पड़ा था । वराङ्गचरित के अनुसार धन प्रादि प्राप्त करने की इच्छा से ब्राह्मण राजदरबार में जाते थे तो द्वारपाल उन्हें प्रविष्ट नहीं होने देते थे । " किसी प्रकार से राजा के पास पहुंच जाने पर जो कुछ दान में मिलता था तो उसकी भी समाज में निन्दा की जाती थी तथा उनको अपमानित किया जाता था । ६ ग्यारहवीं सदी में ब्राह्मणों का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था तथा राज्य के सभी प्रकार के करों से ब्राह्मरण मुक्त थे । " बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्रों में भी ब्राह्मणों को उच्च सम्मान दिया जाता रहा था । चालुक्य कुमारपाल तथा अन्य वस्तुपाल श्रादि जैन मन्त्री ब्राह्मणों के सम्मान करने के लिए इतिहास में विशेष रूप से प्रसिद्ध रहे हैं । १. तत्र किं श्रोत्रियोऽसि त्वमसि पौराणिकोऽथवा ? स्मार्तो वा ? मौहूर्तो वाऽसि ? त्रिविद्याविदुरोऽसि वा ? ।। — त्रिषष्टि०, २६.२३३ २. प्रद्युम्न०, ६.१६५ ३. विद्याक्रिया चारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ - वराङ्ग०, २५.४३ तथा तु० - प्रद्युम्न०, ६.२०५ ३. जयशङ्कर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ० ८०-८५ ५. प्रवेष्टुकामाः क्षितिरस्य वेश्न द्वारस्थैनिरुद्धाः क्षरणमीक्षमाणा । — वराङ्ग०, २५.३० ६. ७. निग्रहानुग्रयोक्ता द्विजा वराकाः परपोष्यजीवाः । – वराङ्ग०, २५. ३३ जयशङ्कर मिश्र, ग्यारहवीं सदी का भारत, वाराणसी, १६६८, पृ० ११०
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy