SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०३ सम्मिलित था । २. सैन्य व्यवसाय - जिसमें युद्ध कला में पारङ्गत होना, राजकुमारों को युद्धादिविद्याओं की शिक्षा देना, सेना में भरती होकर जीविकोपार्जन करना प्रादि प्रमुख था । ३. कला-कौशल सम्बन्धी व्यवसाय - जिसमें वाणिज्य, शिल्प, कृषि, पशुपालन आदि उद्योग एवं व्यवसाय सम्मिलित थे । इनमें से भी वैश्य वर्ग वाणिज्य कर्म, तथा अन्य जातियों के लोग कृषि, पशुपालन तथा अन्य तकनीकी शिल्प कौशल द्वारा जीवन निर्वाह करते थे । ' प्रर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय at कुल - परम्परागत व्यवसाय चयन पर बल था आलोच्य : युग में वर्णव्यवस्था के अनुरूप व्यवसाय चयन पर विशेष बल दिया जाने लगा था । अपने वर्ण द्वारा निश्चित व्यवसाय को छोड़कर दूसरे वर्ण के व्यवसाय को अपनाने वाले व्यक्ति को राजा द्वारा दण्डनीय भी माना जाता था । उ समाज व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा वर्ण-संकीर्णता पर कुछ सीमा तक प्रतिबन्ध लगाने के लिए ऐसा करना आवश्यक भी हो गया पद्मानन्द महाकाव्य में भी कुल परम्परागत जीविकोपार्जन को विशेष महत्त्व दिया गया है । अमरचन्द्र सूरि की स्पष्ट धारणा है कि कुलागत जीविकोपार्जन मन्द मन्द गति से चलने वाली किन्तु गरिमा से युक्त गजराज की सवारी के समान है जबकि कुलेतर प्राजीविका दुनगामी अश्व की सवारी के तुल्य है । इन दोनों में गज की सवारी के समान कुल परम्परागत प्राजीविका ही श्रेयस्कर एवं गरिमा से युक्त है । ६ वणिक् वर्ग द्वारा व्यापार को ही व्यवसाय के रूप में स्वीकार करने के लिए विशेष बल दिया जाने लगा था। ७ ' कला कौशल' - אן १. पद्मा०, ७.५३ २. आदि०, १६.१८७ तथा पद्मा०, ७५३, तथा जयशङ्कर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ० ११२ ३. आदि०, १६.२४८ ४. नेमिचन्द्र, श्रादिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १५२ ५. पद्मा०, ७.४८- ६० ६. ७. कलां कुलागतामेव सेवमानो जनप्रियः । मन्दयानो गजः श्रेयांस्तुरङ्गस्तु त्वरागतिः ।। - पद्मा०, ७.५४, तथा तु०Ghurye, G.S., Caste Class and Occupation, Bombay, 1961. P. 14 कलाकौशलमेव स्याद्, वरिणजां वत्स ! जीवनम् । यन्नैव वणिजां कार्यो विक्रमः सुभटक्रमः । — पद्मा०, ७.५०, तथा — वही, ७.४५
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy