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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज २०२ उद्योग व्यवसायों का प्रथक ढाँचा - वर्ण-व्यवस्था के आधार पर आर्थिक विभाजन प्राचीनकाल से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था से समाज की आर्थिक स्थिति मुख्यतया प्रभावित रहती प्रायी है । उत्पादन, वितरण तथा विनिमय जैसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक सिद्धान्त वर्ण व्यवस्था से घनिष्ट रूप से सम्बद्ध रहे थे । हिन्दू धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में वर्णों के अनुसार ही सामाजिक उद्योग एवं व्यवसाय विभाजित कर दिए गए थे। जैन समाज व्यवस्थापकों ने भी आलोच्य काल में वर्ण व्यवस्थानुसारी विभाजन के औचित्य को स्वीकार कर लिया था । श्रादिपुराणकार के समय में वर्णव्यवस्था को हिन्दू धर्मशास्त्रीय पद्धति से निरूपित किया जाने लगा था । इस विभाजन में धार्मिक भावना की अपेक्षा प्रार्थिक नीतियों का अधिक आग्रह था । उदाहरणार्थ वृषभदेव ने ब्राह्मणों के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान लेना, पूजा करना, तथा यज्ञानुष्ठान सम्पादित करने आदि कार्यों का उपदेश दिया । क्षत्रियों के लिए शस्त्रविद्या एवं युद्ध विद्या की शिक्षा देते हुए शस्त्र - जीवी व्यवसाय ( सैन्य व्यवसाय ) का विधान किया । वैश्यों के लिए जल-स्थलीय व्यापार विधियों का उपदेश दिया । शूद्रों के लिए दैन्य वृत्ति में तत्पर रहते हुए उत्तम वर्णों की सेवा-शुश्रूषा करने का विधान किया । ६ वीं शताब्दी में रचित श्रादिपुराणोक्त वर्ण-व्यवस्थानुसारी व्यवसाय विभाजन की मनुस्मृति यादि धर्मशास्त्रीय साहित्य से तुलना करने पर द्योतित होता है कि इस युग में श्रार्थिक व्यवस्था में किसी प्रकार का मौलिक अन्तर नहीं रह गया था | बदली हुई परिस्थितियों के सन्दर्भ में अब ब्राह्मण पौरोहित्य कर्म के लिए, क्षत्रिय युद्धादि कर्म के लिए वैश्य वाणिज्यादि कर्म के लिए, शूद्र कृषि आदि के लिए आनुवंशिक अधिकार रखते थे । पद्मानन्द के अनुसार ब्राह्मण 'शास्त्रजीवी', क्षत्रिय 'शस्त्रजीवी' तथा वैश्य एवं शूद्र 'कला कौशल - जीवी' के रूप में वरिणत किए गए हैं। इस प्रकार १२वीं - १३वीं शताब्दी तक प्रार्थिक व्यवसाय मुख्यतः तीन भागों में विभक्त हो चुके थे- - १. अध्यापन तथा शास्त्रपरक व्यवसाय — जिसके अन्तर्गत पौरोहित्य कर्म, विविध प्रकार की उच्च विद्याओं का शास्त्रीय ज्ञान आदि १. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० १०६ - १८ २. आदि०, ३८.४५-४६ ३. वही, १६.२४६-४८ ४. वही, १६.२४३ ५. वही, १६.२४४ ६. वही, १६.२४५ ७. तु० -- शास्त्रकजीविनो विप्राः क्षत्रियाः शस्त्रजीविनः । भवन्ति वैश्याः शूद्राश्च कलाकौशलजीविनः ॥ — पद्मा० ७.५३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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