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अर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय
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उत्पादन का ढांचा व्यापक न होकर सीमित रहा था। विभिन्न सामन्त राजाओं के अधीन आने वाली प्रार्थिक इकाइयां अपने-अपने क्षेत्रों के भरण-पोषण तक सीमित थी। अन्न आदि उत्पादन करने वाले ग्रामों के कृषक 'कृषि-दासत्व' (सर्फडम) प्रथा से पूर्णतया प्रभावित थे—'इस प्रथा के अधीन किसान भूमि से बंधे होते थे और भूमि के मालिक वे जमींदार होते थे जो असली काश्तकारों और राजा के बीच की कड़ी का काम करते थे । किसान जमीन जोतने के बदले सामन्तों को उपज पोर बैठ-बेगार के रूप में लगान अदा करते थे। इस प्रणाली का प्राधार प्रात्म-निर्भर अर्थ-व्यवस्था थी, जिसमें चीजों का उत्पादन बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि मुख्यतः स्थानीय किसानों और उनके मालिकों के उपयोग के लिए होता था।'
भूमिदान-उपर्युक्त मध्यकालीन अर्थव्यवस्था को भारत के राजाओं के भूमिदानों ने विशेष प्रभावित किया है । इस प्रथा का प्रारम्भिक स्वरूप महाभारत के 'अनुशासन पर्व' के 'भूमि-दान प्रशंसा' में भी देखा जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्य की दृष्टि से 'भूमिदान' का उल्लेख करने वाला प्रथम-शताब्दी ईस्वी का सातवाहन अभिलेख इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम प्रमाण माना गया है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि वैदिक काल तथा सूत्रकाल में भूमि को मातृतुल्य माने जाने के कारण उसके दान को नैतिक दृष्टि से अनुचित माना जाता था।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में मध्यकालीन अर्थ-चेतना
इस प्रकार भूमि दानों की परम्परा ईस्वी की प्रथम शताब्दी से प्रारम्भ होकर आलोच्य काल तक उत्तरोत्तर विकसित होती रही थी । मध्यकालीन सामन्तवादी राजनैतिक व्यवस्था ने 'भमिदान' प्रथा को विशेष प्रोत्साहित किया है। तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर शक्तिशाली राजा अधिकाधिक 'भूमि' के स्वामी होने की लालसा रखते थे। इस कारण अनेक निर्बल सामन्त राजा अपने अधिकार में आने वाले पुरों अथवा ग्रामों को उपहार के रूप में देकर
१. रामशरण शर्मा, भारतीय सामन्तवाद, पृ० १-२ २. अल्लामा अबदुल्लाह यूसुफ अली, मध्यकालीन भारत की सामाजिक मोर
आर्थिक अवस्था, प्रयाग, १६२६, पृ० ५१ ३. शर्मा, भारतीय सामन्तवाद, पृ० २ ४. वही, पृ० २ तथा तु. Sircar, D.C., Select inscription, p. 188 ५. अथर्ववेद, १२.१.१० तथा शतपथ०, १३.७.७.१५ ६. मीमांसासूत्र, ६.७.३ तथा शबरभाष्य ७. वराङ्ग०, १६.१७ तथा चन्द्र०, १२.३१