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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ७. मारणवनिधि'-युद्ध की दृष्टि से उपयोगी शस्त्रास्त्र इस निधि में आते हैं । इनमें पाश, बाण, चक्र, मुद्गर, शक्ति आदि आयुध उल्लेखनीय हैं ।२ सामरिक महत्त्व की दृष्टि से आयुध आदि भी सम्पत्ति की अवधारणा के प्रमुख अङ्ग रहे थे।
८. कालनिधि --प्राकृतिक सौन्दर्योपेत वस्तुओं का इस निधि में परिगणन हुआ है । वक्ष, गुल्म, लता, वनस्पति, फल-फल आदि वस्तुएं इसमें प्राती हैं। प्राकृतिक वैभव को सम्पन्नता भी 'उपभोग' परक मल्य से जुड़
चुकी थी।
९. सर्वरत्ननिधि' -यह निधि समस्त मनुष्यों के लिए मनोवांछित वस्तु को उत्पन्न करती है तथा यह सम्पत्ति के अधिकाधिक भोग समग्रता के म ल्य से अनुप्रेरित रही थी।
चतुर्दश रत्न
नवनिधियों के समान ही जैन महाकाव्यों में चतुर्दश रत्नों की मान्यता भी राज्य के सन्दर्भ में धन सम्पत्ति के तुल्य ही परमोपकारी स्वीकार की जाती थी। चन्द्रप्रभचरित के अनुसार ये चौदह रत्न हैं - (१) गृहपति, (२) सेनापति, (३) पुरोहित (४) शिल्पी, (५) गज, (६) अश्व, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) दण्ड, (१०) छत्र, (११) असि, (१२) चूड़ामणि, (१३) चर्म तथा (१४) कांकिरिण उपर्युक्त चौदह रत्नों में प्रथम सात रत्न चेतन और अन्तिम सात अचेतन माने जाते हैं। मध्यकालीन अर्थव्यवस्था का स्वरूप
__प्रात्म-निर्भर प्राथिक इकाइयां- मध्यकालीन भारत की प्राथिक दशा प्रात्मनिर्भर आर्थिक इकाइयों से प्रभावित रही थी। राजनैतिक अस्थिरता तथा सम्पूर्ण राष्ट्र का छोडे-छोटे खण्डों में विभाजित होने के कारण इस युग के आर्थिक
१. चन्द्र०, ७.२५, वर्ध०, १४.३३ २. चन्द्र०, ७.२५ ३. चन्द्र०, ७.२१, वर्ध०, १४.२६ ४. चन्द्र०, ७.२५ ५. चन्द्र०, ७.२७, वर्ध० १४.३४ ६. वराङ्ग०, २८.३४, चन्द्र०, ७.१७, पद्मा०, ६.१५१ ७. चन्द्र०, ७.१-१६ ८. रामशरण शर्मा, भारतीय सामन्तवाद, पृ० ६७