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युद्ध एवं सैन्य व्यवस्था
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आया है।' बोझ लादने के कारण थके हुए बलों द्वारा यत्र-तत्र सींगों तथा परों से भूमि खोदने तथा पर्वतीय नदियों के जल पीने जैसी रुचिकर क्रियाएं करने का भी वर्णन मिलता है। इसी प्रकार ऊँट द्वारा कर्णकटु शब्दों को करते हुए ऊंची-ऊंची शाखाओं के पत्तों को खाकर दुग्ध स्रावित होने का उल्लेख भी हुआ है। तृप्त हो जाने पर हाथी पेड़ों के स्कन्धों से बांध दिए जाते थे। घोड़े पट्टमय अस्तबलों में तथा बैल वृक्षों की छाया में बैठकर विश्राम करते थे । युद्धों के भेद
जैन संस्कृत महाकाव्यों में युद्धों के निम्नलिखित प्रकारों का वर्णन
१. दृष्टि युद्ध-परस्पर प्रांखों के द्वारा क्रोध अभिव्यक्त करना ।
२. वाग्युद्ध-परस्पर ऊँचे गर्जन के साथ एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकारना ।
३. भुज-युद्ध'१-(मल्लयुद्ध)१२–प्रायुधों से रहित होकर एक दूसरे योद्धाओं से मल्ल युद्ध करना ।१३
४. पदाति युद्ध' ४-शस्त्रों से एक योद्धा का दूसरे पर आक्रमण करना। इस प्रकार के युद्धों में एक दूसरे योद्धाओं की आंख फोड़ना, सिर काटना, मार कर मूच्छित कर देना आदि क्रियाएं संभव थीं।
१. द्विस०, १४.३७, चन्द्र०, १४.५१, ५४ २., चन्द्र०, १४.६३ ३. वही, १४.६५-६६ ४. द्विस०, १४.३८, चन्द्र०, १४.६१ ५. द्विस०, १४.३८; चन्द्र०, १४.५५ ६. चन्द्र०, १४.६४ ७. पद्मा०, १७.२८८-६२ ८. वही, १७.२८८ ६. वही, १७.२६३-२६७; जयन्त०, १०.२० १०. पद्मा०, १७.२६४ ११. वही, १७.३०५ १२. वराङ्ग, १७.५० १३. पद्मा०, १७.३०८, तथा कीति०, ५.४५ १४. वराङ्ग०, १७.४५, हम्मीर०, ६.१५ । १५. वराङ्ग०, १७.४५-४६, हम्मीर०, ६.१५-१६