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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
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'दण्डनीति' के अनुसार युद्ध की पृष्ठभूमि
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जैन संस्कृत महाकाव्यों की राजनैतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में राजसत्ता प्रमुख रूप से बल पर ही निर्भर थी। शुक्रनीतिसार में छः प्रकार के बलों का उल्लेख है -- ( १ ) शारीरिक बल (२) प्रात्मिक बल ३ ) सैन्य बल, (४) अस्त्र बल (५) बुद्धि बल तथा ( ६ ) आयु बल । इन छः बलों में सैन्य बल राजा के अस्तित्व के लिए अत्यधिक आवश्यक था । कौटिल्य के मतानुसार राजा को सदैव श्रमात्यों के कोप तथा बाह्य शत्रु राजानों के कोप से भय रहता है । राजनैतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में कौटिल्य-कथित यह भय आलोच्य काल में व्यावहारिक रूप से चरितार्थ होने लगा था । इस भय से मुक्ति पाने के लिए भी सैन्य बल का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया था ।
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जैन संस्कृत महाकाव्यों में वर्णित परराष्ट्र नीति में युद्ध का विशेष महत्त्व था । विजयेच्छु राजा को दण्डनीति के अनुसार ही परराष्ट्र नीति का आश्रय लेना आवश्यक था । इस परराष्ट्र नीति के अन्तर्गत 'त्रिविध शक्ति' - ' प्रभुशक्ति', 'मन्त्र - शक्ति', 'उत्साह शक्ति'; ' षाड्गुण्य-व्यवहार' - 'सन्धि', 'विग्रह', 'यान', 'ग्रासन', 'द्वैधीभाव' तथा 'संश्रय' ४; तथा 'चतुविध' उपाय - 'साम', 'दान', 'दण्ड' 'भेद' आदि आते हैं ।' सिद्धान्ततः उपर्युक्त नीति के अनुसार राजा को युद्ध से पूर्व मन्त्रणा लेनी आवश्यक थी। यह भी प्रावश्यक नीति का अङ्ग था कि यदि 'साम', 'दान' से युद्ध विभीषिका को बचाया जा सकता हो तो बचाना चाहिए। क्योंकि 'दण्ड' एवं 'भेद' के सम्भावित परिणाम तो युद्ध एवं विनाश ही थे । ७
युद्ध नीति तथा मन्त्रिमण्डल द्वारा विचार-विमर्श
जैन संस्कृत महाकाव्यों में साम-दान- भेद-दण्ड - इन चार उपायों के देशकालानुसारी प्रयोग पर विशेष बल दिया गया है । ऐसी सम्भावना प्रकट की गई है कि बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य पद्धति से ' षाड्गुण्य' तथा 'चतुविध उपायों के प्रयोग
१. शारीरं हि बलं शौयं बलं सैन्यबलं तथा ।
चतुर्थमास्त्रिबलं पञ्चमं धीबलं स्मृतम् ।। षष्ठमायुर्बलम् ॥ -- शुक्रनीतिसार, ४.८६८-६६
२. अर्थशास्त्र, ६.१.१
३.
४.
५. वराङ्ग०, २१.६६-६७
६. वही, २१.६८
७. वही, २१.६८
चन्द्र०, ५.२३; द्विस०, २.१४; हम्मीर०, ६.१
पद्मा०, ६.१६; हम्मीर०, ६.१