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तृतीय अध्याय यद्ध एवं सैन्य व्यवस्था
युद्धों को राजनैतिक पृष्ठभूमि
सन् ६४६ ई० में हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त भारतवर्ष की राजनैतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हर्षवर्द्धन के राज्यकाल के कुछ स्वतन्त्र सामन्त राजा अब अपने साम्राज्य-विस्तार के लिये भी विशेष प्रयत्नशील थे । दक्षिण भारत में ही अनेक राजवंश अस्तित्व में आ चुके थे। इन राजवंशों का शीघ्रातिशीघ्र पतन एवं उत्थान पालोच्य युग की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। वैसे तो भारत के राजनैतिक इतिहास में युद्ध एवं सेना का प्राचीनकाल से ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहता आया है, किन्तु गुप्त अथवा मौर्य साम्राज्य काल में चील-कौओं जैसे युद्ध नहीं लड़े जाते थे। न ही कोई सामान्य राजा इन बड़े साम्राज्यों से युद्ध करने का साहस ही कर पाता था। किन्तु मध्यकाल में सामन्त पद्धति के उत्तरोत्तर विकास के कारण भारतीय राजनैतिक चेतना राष्ट्रीय एकता से विमुख होती हुई छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित हो चुकी थी। परिणामतः सातवीं-आठवीं शताब्दी ई० के बाद भारतीय इतिहास में युद्ध बहुत अधिक मात्रा में लड़े गये युद्धों के वातावरण से आराजक बने भारतवर्ष की सैन्य ब्यवस्था का छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त हो जाना भी स्वाभाविक ही है । जैन संस्कृत महाकाव्यों के युद्ध वर्णनों तथा सैन्यव्यवस्थाओं की यही राजनतिक पृष्ठभूमि रही थी। पौराणिक कथानकों पर अवलम्वित युद्ध वर्णन भी तत्कालीन युग चेतना से अत्यधिक प्रभावित हैं। युद्धों के कारण
___ जैन संस्कृत महाकाव्यों के अनुसार युद्ध के लिए प्रायः राजा स्वयं उत्तरदायी नहीं होता था। प्रायः कोई अन्य शत्रु राजा ही उसे युद्ध करने के लिये बाध्य करता था ।२ किन्तु दिग्विजय के लिये प्रयाण करते हुए राजा स्वयं दूसरे राजाओं को अधीन बनाने अथवा युद्ध करने के लिए विवश करते थे। जैन संस्कृत महाकाव्यों में जिन कारणों से युद्ध लड़ने के प्रायः उल्लेख पाये हैं
१. Thapar, Romila, A History of India, Vol. I, p. 168-69, २. वराङ्ग०, १६.४६-४६; चन्द्र०, १२.१-२५ ३. चन्द्र०, सर्ग-१६; जयन्त०, सर्ग-१०