SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज समान अधीनस्थ माना गया है। १ हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में आए ये उल्लेख यह स्पष्ट कर देते हैं कि 'कुटुम्बी' स्वरूप से कृषक अवश्य रहे होंगे क्योंकि समग्र कृषकवर्ग पर ये आधिपत्य करते थे; किन्तु ये वास्तविक व्यवसाय करने वाले किसान नहीं थे । हेमचन्द्र द्वारा अभिधानचिन्तामरिण में कोशशास्त्रीय अर्थ के रूप में 'कुटुम्बी' को कृषक मानना अर्थ की दृष्टि से परम्परानुमोदित तथा युक्तिसङ्गत है किन्तु लौकिक व्यवहार की प्रासङ्गिकता की दृष्टि से 'कुटुम्बी' देशीनाममाला में कहे गए 'कोंडिग्रो' के तुल्य था जो 'ग्रामभोक्ता' होने के साथसाथ छलकपटपूर्ण व्यवहार से ग्रामवासियों पर शासन करता था । अपनी हैसियत को बनाए रखने के लिए यह 'कुटुम्बी' विश्वासपात्र तथा विनम्र सेवक के रूप में राजा की हर प्रकार से सहायता करता था । मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था एवं सामुदायिक ढाँचों के सन्दर्भ में इतिहासकारों तथा पुरातत्त्ववेत्तानों ने 'कुटुम्बी' सम्बन्धी जिन मान्यताओं का प्रतिपादन किया है, उनमें प्रो० आर० एस० शर्मा का मन्तव्य है कि मध्यकालीन 'कुटुम्बी' वर्तमान कालिक बिहार एवं उत्तर प्रदेश की शूद्र जाति ' कुर्मियों' तथा महाराष्ट्र की 'कुन्वियों' के मूल वंशज रहे थे । उनके अनुसार मध्यकालीन भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप वैश्यों तथा शूद्रों के व्यवसायों में काफी परिवर्तन आ चुके थे । गुप्तकाल की उत्तरोत्तर शताब्दियों में शूद्रों ने वैश्यों द्वारा किए जाने वाले कृषि व्यवसाय को अपना लिया था । ४ सातवीं शताब्दी ई० के ह ेन्त्साङ्ग तथा ग्यारहवीं शताब्दी ई० के अलबरूनी ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि शूद्र कृषि कार्य में लग चुके थे तथा वैश्यों एवं शूद्रों में रहन-सहन की दृष्टि से कोई विशेष भेद नहीं रह गया था । इसी ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रो० शर्मा 'कुटुम्बियों' को सम्भवत: एक ऐसी कृषक जाति से जोड़ना चाहते हैं जो वर्ण से शूद्र थी । डी० सी० सरकार' तथा वासुदेवशरण अग्रवाल की भी यही धारणा है कि 'कुटुम्बी' उत्तर १. कुटुम्बिनः पत्तयो वा सामन्ता वा त्वदाज्ञया । अतः परं भविष्यामस्त्वदधीना हि नः स्थितिः ॥ — त्रिषष्टि०, २.४.२४० २. अभिधानचितामणि, ३ . ५५४ Sharma, Social Changes in Early Medieval India, p. 11 ४. वही, पृ० ११ ३. ५. Sircar, D.C., Select Inscriptions, Vol. I, Calcutta, 1942, p. 498 ६. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पटना, १६५३, पृ० १८१, पाद० ४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy