________________
राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
१३० मध्यकालीन भारत के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सोमदेव के नीतिवाक्यामृत (१०वीं शती ई०) में 'कुटुम्बियों' को 'बीजभोजी' कहा गया है तथा उनके प्रति अनादर की भावना अभिव्यक्त की गयी है। इसी प्रकार नीतिवाक्यामृत में राजानों को निर्देश दिए गये हैं कि वे द्यूत आदि व्यसनों के अतिरिक्त कारणों से पाए हुए 'कुटुम्बियों' के घाटे को पूरा करें तथा उन्हें मूल धन देकर सम्मानित करें ।२ नीतिवाक्यामृत के इन उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि 'कुटुम्बी' राजा के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे किन्तु सामन्तवादी भोग-विलास तथा सामान्य कृषकों के साथ दुर्व्यवहार करने के कारण इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा समाप्त होती जा रही थी। नीतिवाक्यामृत में सामान्यतया किसान के लिए 'शूद्रकर्षक'3 प्रयोग मिलता है अतएव 'कुटुम्बी' को उन धनधान्य सम्पन्न किसानों के विशेष वर्ग के रूप में समझना चाहिए जो परवर्ती काल में जमींदार के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति बना सके थे ।
बारहवीं शताब्दी ई० मध्यकालीन सामन्तवादी अर्थव्यवस्था की चरम परिणति मानी जाती है। इस समय तक ग्राम सङ्गठन पूर्णतः सामन्तवादी प्रवृत्तियों से जकड़ लिए लिए गए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ग्राम सङ्गठनों के 'कुटुम्बी' आदि ठीक उसी प्रकार समझे जाने लगे थे जैसे 'सामन्त' राजा । हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य में युद्ध प्रयाण के अवसर पर 'ग्रामाधीश' आदि स्वयं को 'कुटुम्बियों के समान कर देने वाले तथा अधीन रहने वाले' बताते हैं । त्रिषष्टि० में एक दूसरे स्थान पर 'कुम्बियों' को सेना तथा 'सामन्त' राजाओं के
१. बीजभोजिनः कुटम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्यायत्यां किमपि शुभम् ।
-नीतिवाक्यामृत, १.४५ २. अव्यसनेन क्षीणधनान् मूलधनप्रदानेन कुटुम्बिनः प्रतिसम्भावयेत् ।
-वही, १७.५३ ३. वही, १६.८ 8. "Out of the revenue retained by the vassal he was expected to
maintain the feudal levies which underlying his oath of loyality to his king, he was in duty bound to furnish for the king's services. To break his oath was regarded as a heinous offence.'
Thapar, Romila, A History of India, Part I, p. 242 तथा तु०-त्रिषष्टि०, २,४.१७०-७२ ५. कुटुम्बिका इव वयं करदा वशगाश्च वः । -त्रिषष्टि०, २.४.१७३