________________
१३८
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
१
'कडुच्चित्रम् ' ' तथा 'कोंडिग्रो र महत्त्वपूर्ण हैं । हेमचन्द्र ने 'कुडुच्चित्रम्' का अर्थ 'सुरत' अथवा 'मैथुन' किया है, किन्तु 'कोंडिप्रो' को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में स्पष्ट करने की चेष्टा की है जो 'ग्रामभोक्ता' होता था तथा छल-कपट से ग्रामवासियों को परस्पर लड़ा-भिड़ाकर गांव में अपना आधिपत्य जमा लेता था - 'मेण ग्रामभोत्ता य कोंडियो - कोंडियम्रो भेदेन ग्रामभोक्ता । ऐकमन्यं ग्रामीणानामपास्य यो मायया ग्रामं भुनक्ति ।४ इस प्रकार देशीनाममाला से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत परम्परा से चले आ रहे 'कौडम्बिय' 'कोडिय' आदि प्रयोग हेमचन्द्र के काल तक 'कोंडिओ' के रूप में ग्रामशासन के अधिकारी के लिए व्यवहृत होने लगे थे ।
सातवीं शताब्दी ई० के बाणरचित हर्षचरित में 'कुटुम्बियों' के जो उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध में दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं । एक तो 'कुटुम्बी' का प्रयोग 'अग्रहार' 'ग्रामेयक' 'महत्तर' 'चाट' श्रादि के साथ हुआ है जो स्पष्ट प्रमाण है कि 'कुटुम्बी' भी 'ग्रामेयक' आदि के समान प्रशासनिक अधिकारी रहा होगा । दूसरे राजा हर्ष दिग्विजय के अवसर पर किसी वन ग्राम में 'कुटुम्बियों के घरों को देखकर वहाँ रहने लगते हैं । फलतः ये कुटुम्बिी' सामान्य किसान न होकर राजा के विश्वासपात्र व्यक्ति रहे होंगे जिन पर युद्ध प्रयाण आदि के अवसर पर राजा तथा उसकी सेना के रहन-सहन तथा भोजन आदि की व्यवस्था का दायित्व भी रहता था । इस प्रकार हर्षकालीन भारत में 'कुटुम्बी' ग्राम सङ्गठन के प्रशासनिक ढाँचे से पूर्णत: जुड़ चुके थे ।
कात्यायन के वचनानुसार श्रोत्रिय, विधवा, दुर्बल, कुटुम्बी आदि को 'राजबल' माना गया है तथा इनकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करने का निर्देश दिया गया है ।
१. देशीनाममाला, २.४१
२. वही, २.४८
३. 'कुडुच्चित्रं सुरए' – वही, २.४१
४. वही, २.४८
५. हर्षचरित, सप्तम उच्छ्वास, सम्पादक – पी० वी० काणे, दिल्ली, १९६५ पृ० ३५, ६८, ६६, तथा २२६
६. श्रोत्रिया विधवा बाला दुर्बलाश्च कुटुम्बिनः ।
एते राजबला राज्ञा रक्षितव्या प्रयत्नतः ॥
- ( कात्यायन), कृत्यकल्पतरु, राजधर्मकाण्ड, भाग ११, पृ० ८४