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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
पल्ली ग्राम का राजा कहलाता था।' इस शिलालेख से 'अवगलक' को राज्य प्रशासन की ओर से नियुक्त अधिकारी के रूप में सिद्ध करने के लिए प्रामाणिक आधार मिलता है तथा इसी रूप में 'कुटुम्बी' को भी समझा जा सकता है। मध्यकालीन ग्राम सङ्गठन के पार्थिक पक्ष पर प्रकाश डालने बाले इस शिलालेख के उल्लेखानुसार 'अवलगन' (प्रेम उपहार) को राजा तक पहुंचाने वाले व्यक्ति की 'अवलगक' संज्ञा थी। संभवतः प्रारम्भ में कटी हुई फसल के राजकीय भाग से इसका अभिप्राय रहा होगा। किन्तु बाद में किसी भी व्यक्ति से सम्बन्ध अच्छे बनाने के लिए भी किसी प्रकार का प्रेमोपहार देना 'अवलगन' कहलाने लगा।' मध्यकालीन अर्थव्यवस्था में सामन्तवादी चरित्र की यह विशेषता ही बन गई थी।
'कुटुम्बी' के कोशशास्त्रीय अर्थ का भी रोचक इतिहास है। अमरकोशकार (५वीं शती ई०), 'कुटुम्बिनी' तथा 'कुटुम्बव्यापृत्त'४ शब्दों के उल्लेख तो करते हैं किन्तु स्वतन्त्र रूप से 'कुटुम्बी' के किसान-अर्थपरक पर्यायवाची शब्दों का कहीं भी उल्लेख नहीं करते । ऐसा प्रतीत होता है कि अमरकोश के काल में 'कुटुम्बी' को किसान के पर्यायवाची शब्दों में स्थान नहीं मिल पाया था। उन्होंने किसान के 'क्षेत्राजीवः', 'कर्षकः', 'कृषिक:' 'कृषिवलः' केवल चार पर्यायवाची शब्द गिनाए हैं जबकि दशवीं शताब्दी ई० में निर्मित हलायुध कोश में इन चार पर्यायवाची शब्दों के अतिरिक्त 'कुटुम्बी' भी जोड़ दिया गया। इस प्रकार हलायुध कोश ने सर्वप्रथम दसवीं शताब्दी ई० में 'कुटुम्बी' के किसानपरक अर्थ को मान्यता दी। तदनन्तर हेमचन्द्र ने भी इसे परम्परागत रूप से किसान के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार कर लिया । १२वीं शताब्दी ई० में हेमचन्द की देशीनाममाला में 'कुटुम्बी' से सादृश्य रखने वाले अनेक प्राकृत शब्द मिलते हैं उनमें
१. Stein, The Jinist Studies, p. 80 २. त०-Turner, Comparative Dic. p. 62; Stein, The Jinist Studies,
p. 80, fn. 172 ३. Stein, The Jinist Studies, p. 81-82 ४. तु० - 'भार्या जायाथपुंभूम्निदाराः स्यात्तु कुटुम्बिनी'-अमर० २.६.६ तथा
'कुटुम्बव्यापृतस्तु यः स्यादभ्यागारिकः'-वही ३.१.११ ५. 'क्षेत्राजीवः कर्षकश्च कृषिकश्च कृषीवलः ।' – बही २.६.६ ६. तु०-'क्षेत्राजीवः कृषिकः कृषिवलः कर्षक: कुटुम्बी च ।'
-अभिधानरत्नमाला, २.४१६ ७. अभिधानचिन्तामणि, ३.५५४ ८. त्रिषष्टि०, २.४.१७३ तथा २.४.२४०