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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
१६. स्त्री-कर्मचारी - स्त्री कर्मचारियों में धात्री, १ चेटिका आदि का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है । प्रायः राजा के अन्तःपुर में रानियों- राजकुमारियों आदि की सेवाशुश्रूषा के निमित्त इन्हें नियुक्त किया जाता था । बौनी तथा कुबड़ी परिचारिकाओं का भी उल्लेख आया है । अन्तःपुर में अस्सी अस्सी वर्ष की वृद्ध परिचारिकाएं भी होती थीं । ४
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(ग) ग्राम प्रशासन
मध्यकालीन राजनैतिक शासन व्यवस्था के सन्दर्भ में ग्राम- प्रशासन सम्बद्ध ग्राम संस्थाओं की विशेष भूमिका रही थी । इस युग में ग्राम संस्थानों ने एक स्वायत्त संगठनों के रूप में छोटे छोटे राज्यों का रूप ले लिया था । आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी दृष्टियों से वे इतने आत्मनिर्भर एवं सशक्त थे जिसके कारण उन्हें बाह्य तन्त्र से अप्रभावित माना जा सकता है। राजवंशों का उत्थान पतन होता रहा परन्तु ग्राम संगठन प्रभावित हुए बिना अपने संगठनात्मक चरित्र की रक्षा करने में समर्थ रहे । मध्यकालीन सामन्त पद्धति के सैद्धान्तिक पक्ष को विशद करने की प्रोर नीति शास्त्रियों ने यद्यपि विशेष रुचि नहीं दिखाई है तथापि मध्यकाल में रचित युक्तिकल्पतरु ने यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि 'चक्रवर्ती सम्राट्' और ग्राम के 'स्वामी' दोनों को ही 'राजा' क्यों कहा जाता है ? उत्तर दिया गया है क्योंकि 'चक्रवर्ती सम्राट्' और ग्राम के 'स्वामी' दोनों ही अपने क्षेत्र में शासन को स्वीकार कराते हैं अतएव 'राजा' के नाम से चरितार्थ होते हैं । वस्तुतः अनेक राजधर्म प्रणेताओं ने 'ग्राम' की चर्चा सामान्य 'ग्राम' के रूप में नहीं अपितु, 'राष्ट्र' (Estate) के रूप में की है । सामन्तों की इन ग्रामों में विशेष स्थिति रही थी 'सामन्त ' का एक अर्थ यह भी किया गया है जिसके अनुसार वह 'समान ग्रामों का स्वामी' माना जाता था । "
ग्राम प्रशासन और ग्राम संगठन
ग्रामों की अनवस्थित दशा को स्थिर करने तथा इन ग्रामों के अन्तर्गत आने वाले 'कुटुम्ब' अथवा 'कुलों' को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि में 'राजतन्त्र' की उपादेयता स्वीकार की गई है तथा वास्तुशास्त्रीय व्यवस्थित पद्धति के अनुरूप ग्राम, दुर्ग, जनपद आदि के निवेश को महत्त्व दिया
१. वराङ्ग०, १५.३६
२. परि०, ८.४६
३.
४.
वराङ्ग०, १५.३६
तु० -
श्राशीतिका वर्षवराः पुरन्ध्रयः । - द्विस०, ३.१५
५. तु० - सामन्ता वा समग्रामाः', याज्ञवस्मृति, ६.५५ ५२ वात्यायन टीका