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________________ राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था १२५ गया है। इस प्रकार 'ग्राम संगठन' की प्रारम्भिक पष्ठभूमि मूलत: सामाजिक संगठन का महत्त्वपूर्ण अङ्ग रही थी जिसमें गोत्र, कुल, वंश, परिवार आदि का विशेष औचित्य था ।२ किन्तु परवर्ती काल में कृषि विकास के कारण ग्रामों द्वारा ही आर्थिक उत्पादन किया जाता था फलतः ग्राम संगठन को राजनैतिक शासन व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला । गुप्तकाल तथा इससे उत्तरोत्तर शताब्दियों में ग्राम संगठन सामन्तवादी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी ही बन गए, जो अात्मनिर्भर अर्थव्यवस्था से केन्द्रित थे तथा राजनैतिक शक्ति के प्रभुत्व की मुख्य शक्ति के रूप में उभर कर पाए थे ।३ सातवीं शताब्दी ई० से बारहवीं शताब्दी ई० तक के मध्यकालीन ग्राम संगठनों का भारतीय अर्थ-व्यवस्था को प्रात्मनिर्भर एवं ग्रामोन्मुखी बनाने में विशेष योगदान रहा है । परिवर्तित आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार किसी भी 'सामन्त' राजा की उपादेयता उसके अधीन हुए ग्रामोत्पादन के लाभ से की जाती थी। इस व्यवस्था में किसान भूमि से बन्धे होते थे तथा भूमि के स्वामी वे जमींदार 'सामंत' थे जो असली कास्तकारों और राजानों के बीच की कड़ी बने हुए थे। इन्हीं राजनैतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में मध्यकालीन ग्राम संगठनों का शासन-प्रबन्ध की दृष्टि से विशेष महत्त्व हो गया था। 'सामन्त' राजाओं ने 'ग्राम संगठन' पर पूर्ण नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से ग्रामों में रहने वाले जमींदारों, शिल्पीप्रमुखों, जाति-प्रमुखों आदि को भी शासन-प्रबन्ध में अपना भागीदार बना लिया था। ग्राम प्रशासन के सन्दर्भ में महत्तर/महत्तम एवं कुटम्बी४ ग्राम संगठन के सन्दर्भ में 'महत्तर'/'महत्तम' तथा 'कुटुम्बी' शब्दों का इतिहास छिपा हुआ है । इन पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को समझने के लिए प्राचीन १. महाभारत (शान्तिपर्व), १२.८७.२-८ Sharma, R.S., Social Changes in Early Medieval India, The First Devraj Channana Memorial Lecture, University of Pelhi, Delhi, 1969, p. 13 तथा तु०'शूद्रकर्षकप्रायं कुलशतावरं पंचशतकुलपरं ग्रामं निवेशयेत्' ।, अर्थशास्त्र, २.१ ग्रामाः गृहशतेनेष्टो निकृष्ट: समधिष्ठितः । परस्तत्पञ्चशत्यास्यात् सुसमृद्धकृषिवलः ।। -आदिपुराण, १६.१६५ Altekar, State & Government in Ancient India, Delhi, 1972, pp. 226-227; Pran Nath, A Study in the Economic Condition of India, London, 1929, pp. 30-33 ४. एतद् सम्बन्धी शोधनिबन्ध 'पाल इण्डिया औरियेन्टल कान्फ्रेंस', सेसन ३०, पूना', १६८० में पढ़ा गया तथा संशोधित रूप से "आस्था और चिन्तन" -प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ के 'जैन इतिहास कला और संस्कृति' 'खण्ड, दिल्ली, १९८७, पृ० ८०-६३ में प्रकाशित हुआ।
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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