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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
न्याय व्यवस्था
न्याय व्यवस्था तथा राज्य संस्था - सामाजिक नियंत्रण के लिए राज्य संस्था का विशेष महत्त्व होता है ।' जनसामान्य में कानून तथा दण्डविधान द्वारा व्यवस्था स्थापित करना भी राज्य का ही महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार किया जाता है । प्रायः यह भी स्वीकार किया जाता है कि राज्य संस्था से भिन्न सामाजिक आदर्शों अथवा नैतिक आचरणों के द्वारा भी समाज में व्यवस्था बनी रह सकती है किन्तु विषम राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित जटिल समाजों में कोरे सामाजिक आदर्श अथवा नैतिक उपदेश अपराधों के नियन्ता नहीं हो सकते । समाजशास्त्रियों तथा राजनैतिक चिन्तकों ने दण्डविधान द्वारा अपराधों की रोकथाम करने की प्रवृत्ति को 'राज्य - संस्था' की एक प्रमुख विशेषता मानी है तथा एक ऐसी विशेषता भी जो 'समाज' के स्वरूप से मेल नहीं खाती है । 'समाज' में प्रचलित आदर्शों तथा नैतिक नियमों में प्रायः शारीरिक अथवा अन्य किसी प्रकार की हिंसक पद्धति से दण्ड देने का विधान नहीं होता । समाज तो केवल धर्म आदि का भय दिखाकर ही सामाजिक अपराधों की संख्या को मनोवैज्ञानिक ढंग से कुछ कम कर सकता है । इसके विपरीत शक्ति सम्पन्न होने के कारण, 'राज्य संस्था क्रूरातिक्रूर पद्धति से भी न्यायव्यवस्था को बनाए रखने के लिए समर्थ होती है ।'
ग्रीन द्वाता प्रतिपादित दण्ड विषयक सिद्धान्त के अन्तर्गत यह स्वीकार किया गया है कि 'राज्य संस्था' द्वारा दण्ड की व्यवस्था करने का प्रयोजन मनुष्यों में बदला लेने की भावना को कार्यान्वित न होने देना है। जब तक 'राज्य संस्था' का विकास नहीं हुआ था, मनुष्य अपने प्रति किए गए अन्याय अथवा अत्याचार का स्वयं प्रतिकार कर लेता था । ऐसी अवस्था में निर्बलों के लिए न्याय प्राप्ति सुगम नहीं हो सकता था । 'मत्स्यन्याय' की इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए ही 'राज्यसंस्था' का विकास हुया तथा न्याय की व्यवस्था स्थापित करने का कार्य व्यक्तियों के बदले स्वयं राजा करने लगा । इस प्रकार राज्य के सन्दर्भ न्याय व्यवस्था की समस्या एक सामाजिक समस्या है जिसका समाधान पूर्णतः राजनैतिक पद्धतियों से किया जाता है । दण्ड देना राज्य का अधिकार ही नहीं कर्त्तव्य भी है। राज्य उन व्यक्तियों को
१. सत्यकेतु विद्यालङ्कार, राजनीति शास्त्र, मसूरी, १६६८, पृ० ४३७ २. किंग्सले डेविस, मानव समाज, पृ० ५४
३. विश्वनाथ वर्मा, राजनीति और दर्शन, पृ० १३६
४. किंग्सले डेविस, मानव समाज, पृ० ५५
५. सत्यकेतु विद्यालङ्कार, राजनीति शास्त्र, पृ० ४६०