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राजनैतिक शासन तन्त्र एवं राज्य व्यवस्था
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प्रयोग आदि 'शक्ति-अधिकार' के उदाहरण सर्वथा राजतन्त्रीय हैं तथा 'समाज' के प्रयोजनों से प्रेरित 'समाजशास्त्र' को इसमें अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।' एक बार समाज जिसे भी शासक का अधिकार सौंप देता है तो उसके बाद यदि समाज उसे हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता । यदि कोई दूसरा शक्तिशाली 'राजनैतिक सङ्गठन' इस शासक को पदच्युत कर देता है तो पुनः वही शासन का अधिकारी बन जाता है । इस प्रकार ‘राज्य' में शासकत्व सामर्थ्य शक्ति से अनुप्रेरित एक यथार्थ-तत्त्व है न्याय-तत्त्व नहीं ।२ इन्हीं कुछ विचारों की पृष्ठभूमि में 'राज्य' को कुछ समाजशास्त्री राजनीतिशास्त्र का विषय मानकर इसकी सामाजिक उपादेयता को शिथिल बनाना चाहते हैं। किन्तु दूसरे सामाजिक विचारक 'राज्य' को 'समाज' के सन्दर्भ में एक आवश्यक तत्त्व मानते हैं । इस सन्दर्भ में हरबर्ट स्पेन्सर तथा महात्मा गांधी जी के 'राज्य' संबंधी विचारों का उल्लेख कर देना प्रासङ्गिक होगा । स्पेन्सर सदैव 'राज्य' तथा 'शासन तन्त्र' के घोर विरोधी रहे हैं। स्पेन्सर की मान्यता है कि समाज में अनैतिकता को दूर करने का कार्य ‘राज्य' का है और यदि समाज में अनैतिकता न रहे तो 'राज्य' की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती।3 गाँधी जी के राम-राज्य की कल्पना का अभिप्राय भी एक 'राज्य' विहीन शासन से था । एक ऐसा शासन जिसमें लाखों करोड़ों लोगों का कोई भी शासक नहीं होगा बल्कि देश के समस्त नागरिक ही अपने शासक स्वयं होंगे । गांधी जी के अनुसार राज्य ‘शक्ति का सङ्गठन' है जो सदैव निर्धनों एवं शक्तिहीनों का शोषण करता है इसलिए एक अहिंसक समाज के लिए 'राज्य' सबसे बड़ा बाधक है।४
पाश्चात्य विद्वानों ने 'राज्य' के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जिनमें से सामाजिक अनुबन्ध५, विकासवाद, सावयववाद, देवी अधिकार
१. महादेव प्रसाद, समाज दर्शन, काशी, १६६८, पृ० २२१ २. किंग्सले डेविस, मानव समाज, अनुवादक, गोपाल कृष्ण अग्रवाल, इलाहाबाद,
१६७४, पृ० ४२५ ३. तेजमल दक, सामाजिक विचार एवं विचारक, अजमेर, १६६१, पृ० १०४ ४. वही, पृ० ३५१ ५. तुल०-काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-२, पृ० ५६३-६४, तथा
सत्यकेतु विद्यालङ्कार, प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था और
राजशास्त्र, मसूरी, १६६८, पृ० ३०२ ६. सत्यकेतु, प्राचीन भारतीय शासन०, पृ० २६८ ५. वही, पृ० ३१०