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________________ दूसरा अधिकार। तीन गुप्तिके भेदसे तेरह प्रकार है और व्रतोंके भेदसे अनेक प्रकार है॥२५॥धर्मके प्रसादसे आत्माके परिणाम शुद्ध होते हैं, शुद्ध होनेसे आत्मा प्रबुद्ध होता है और प्रबुद्ध होनेपर रत्नत्रयरूप शुद्ध आत्मामें स्थिर हो जाता है ॥२५॥ वे मुनिराज इसप्रकार बारह अनुप्रेक्षाओंका चितवन करने लगे और असन्त दुःख देनेवाले उन स्त्रियोंके किये हुए उपद्रवको उन्होंने कुछ भी नहीं माना ॥ २५६ ॥ सबेरा होते ही उस उपद्रवको व्यर्थ समझकर और जानेवाले लोगोंके डरसे वे तीनों ही स्त्रियां भाग गई ॥२५७॥ कर्मोको क्षय करनेवाले वे भव्य मुनिराज मनको निश्चल कर और आत्मध्यानमें तत्पर होकर उसीप्रकार वहीं विराजमान रहे ॥२५८॥ तदनंतर वहांपर बहुतसे भव्य श्रावक आगये और उन सबने मन वचन कायको शुद्धतापूर्वक जल चंदन आदि आठों द्रव्योंसे उन मुनिराजकी पूजा की ॥२५९।। उन मुनिराजका शरीर तो क्षीण हो ही रहा था परन्तु उपद्रवके कारण उनके सब शरीरमें घाव हो रहे थे ॥२५४॥ धर्मात्पुसो विशुद्धिः स्यात्तस्याश्चात्मप्रबोधनम् । तस्माददृग्वीर्यचिद्रूपे स्वात्मरूपे स्थिरीभव ॥२९५॥ मुश्चित्ते त्वनुप्रेक्षा द्वादश भावयन्न हि । उपद्रवं मनुतेरणा ... दुःखदायकम् ॥२५६॥ प्रत्यूषेऽथ नाकीर्णे नष्टास्तिस्रोपि योषितः । मानवभयतो ज्ञात्वा निरर्थकमुपद्रवम् ॥ २९७ ॥ योगी तथैव संतस्थे स्वात्मध्यानेषु तत्परः । निश्चलमानसो भव्यः कर्मणां क्षयकारकः ॥ २५८ ॥ ततो भव्यननाः सर्व समागत्य मुनीश्वरम्। त्रिशुद्धया पूजयामासुरष्टद्रव्यैनलादिभिः ॥२५९॥ ते चित्त ज्ञापयामासुरुपद्रवितयोगितम् । अण--
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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