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________________ ७०] गौतमचरित्र। कोई मनुष्य खड़ा हो जाय, वह अपने दोनों पैर फैला ले और दोनों हाथ कमरपर रखले तथा उसका मस्तक न हो उस समय उसका जैसा आकार होता है ठीक वैसा ही आकार इस लोकका है। यह लोक अकृत्रिम है, किसीका बनाया हुआ नहीं है ॥ २५० ॥ यह लोक चौदह रज्जू ऊंचा है और तीनसौ तेतालीस रज्जू घनाकार है। हे जीव ! इस लोकमें तू व्यर्थ ही क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? ॥२५१॥ इस संसारमें भव्य होना असन्त कठिन है फिर मनुष्य होना, आर्यक्षेत्रमें जन्म लेना, मोक्ष जाने योग्य कालमें उत्पन्न होना, अच्छे कुलमें जन्म लेना, अच्छी आयु पाना आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके प्राप्त होते हुए भी रत्नत्रयकी प्राप्ति होना असन्त दुर्लभ है ॥२५२॥ हे जीव ! अपनी इच्छाको पूर्ण करनवाले और चिंतामणिके समान सुख देनेवाले ऐसे रत्नत्रयको पाकर तू व्यर्थ ही क्यों खो रहा है ? (इसको पाकर शीघ्र ही अपना कल्याण क्यों नहीं करता) ॥ २५३ ॥ यह धर्म अहिंसारूप एक प्रकार है, मुनि श्राक्कके भेदसे दो प्रकार है, क्षमा, मार्दव आदिके भेदसे दश प्रकार है, पांच महाव्रत पांच समिति त्रिमो न कैः कृतः ॥२५०॥ ऊर्ध्वश्चतुर्दशो रज्जुर्घनाकारशतत्रयम् । त्रिचत्वारिंशता साई तत्र भ्रमसि किं मुधा ॥ २५१ ॥ भव्यत्वं नृत्वसत्क्षेत्रं कालोच्चजन्मसुस्थितिः। दुर्लभं ते क्रमात्सत्सुबोधं तेष्वपि दुर्लभम् ॥२५२॥ बोधं प्राप्य कथं जंतो! त्वं गमयसि वै वृथा । वांछितं सुखदातारं चिंतामणिमिवापरम् ॥२५३॥ एकविधो वृक्षो जैनो द्विविधो दशधा मतः । त्रयोदशविधश्चापि बहुधा व्रतभेदतः
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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