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प्रथम अधिकार।
[२१ पवास, सचित्तसाग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओंका पालन करना चाहिये ।।१००-१०२।। अहिंसा अणुव्रत, सत्य अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत, 'परिग्रहपरिमाण अणुव्रत ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं। श्रावकोंको इनका भी पालन करना चाहिये ॥ १०३ ॥ दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदंडविरतिव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। श्रावकाचारको अच्छी तरह जाननेवाले श्रावकोंको इनका भी प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये ॥ १०४ ॥ छहों कायके जीवोंपर कृपा करना, पांचों इंद्रियोंको तथा मनको वशमें करना, तथा रौद्रध्यान और आर्तध्यानका त्याग कर देना सामायिक कहलाता है। यह सामायिक श्रावकोंको नियत समयपर अवश्य करना चाहिये ॥१.०५॥ अष्टमी चतुर्दशीके मधुं लोकविनिंद्यं च कः सुधीः पातुमिच्छति ॥९९॥ आद्यं सुदर्शनं ज्ञेयं व्रतं सामायिक तथा । सुप्रोषधोपवासोऽथ सचित्तवस्तुवर्ननम् । ॥ १०॥ रात्रिभुक्तिपरित्यागो ब्रह्मचर्यसुपालनम् । आरम्भरहितश्चापि परिग्रहप्रमाणकः॥१०१॥ अननुमोदनं चैवमुपदेशविवर्जितम्। एकादश च पाल्यंते प्रतिमा देशव्रतिभिः ॥ १०२ ॥ जीवदया च सत्यं चास्तेयं च ब्रह्मचर्यता । परिग्रहप्रमाणं चाणुव्रतपंचकं मतम् ॥१०३॥ दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिर्या गुणव्रतम् । श्रावकाचारपारीणैः पालनीयं प्रयत्नतः ॥१०४॥ कृपा षड्जीवकायेषु पंचाक्षचित्तरोधनम् । रौद्रार्तध्यानसंत्यागो यस्तत्सामायिकं मतम् ॥ १०५ ॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं व्रतमाचरेत् । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन