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________________ १६४] गौतमचरित्र। प्रतिष्ठा आदि कार्यों में विघ्न करनेवाला है वह अंतरायकर्मका बंध करता है। उस अंतरायकर्मके उदयसे वह जीव फिर अपने इष्ट पदार्थोको प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ७१ ॥ गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे आश्रय रुक जाता है और महा संवर होता है ॥ ७२ ॥ जिसप्रकार समुद्रमें पड़ी हुई नावका छिद्र बंद कर देनेसे वह नाव फिर डूबती नहीं अपने इष्ट स्थानपर पहुंच जाती है उसीप्रकार यह आत्मा भी संवरके होनेपर फिर संसारमें कभी नहीं डूबता, फिर वह अपने मोक्षरूप इष्ट स्थानको अवश्य पहुंच जाता है ।। ७३ ॥ बारह प्रकारके तपश्चरणसे, धर्मध्यानरूपी उत्तम बलसे और रत्नत्रयरूपी बन्हिसे यह जीव कर्मोकी निर्जरा करता है ॥ ७४ ॥ वह निर्जरा दो प्रकारकी है, सविपाक और अविपाक । सविपाक निर्जरा रोग आदिके द्वारा फल देकर कर्मोंके झड़ जानेसे होती है तथा जिसप्रकार घासमें रखकर आमको जल्दी पका लेते हैं उसीप्रकार तप और ध्यानके द्वारा विना फल दिये जो कर्म नष्ट होजाते हैं उसे अविपाक निर्जरा करते हैं॥७॥ समस्त नो लभेत् ॥७१॥ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षाचारित्रधारणैः । परीषहजयः रोध आस्रवाणां स संवरः ॥ ७२ ॥ नो बुडत्यत्र संसारे संवरे सति चेतनः । स्वेष्टं पदं प्रयातीव सिंधौ नौछिद्रबंधने ॥७३॥ तपोभिर्दादशैर्जन्तुर्धर्म्यध्यानादिसलैः । कर्मणां निरां कुर्याद्रत्नत्रयादिवह्निना ॥ ७४ ॥ सविपाकाविपाकेन सा द्विधा रुजादिभिः । साध्यापर तपोध्यानैः कालैस्तृणै रसालवत् ॥७९॥ विश्वकर्मक्षयान्मोक्षस्तत एरंड
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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