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________________ १२० ] गौतमचरित्र । जैनधर्मके ही प्रभाव से विनयवान् पुत्र चरणकमलोंकी सेवा करते हैं, जैनधर्मके ही प्रभाव से चंद्रमा और बरफके समान स्वच्छ और चारों दिशाओं में फैलानेवाली कीर्ति प्राप्त होती है, धर्म ही प्रभाव से बड़ी भारी विभूति प्राप्त होती है, धर्मके ही प्रभाव से अनेक सुंदर स्त्रियां प्राप्त होती हैं और धर्मके ही प्रभावसे सुरेंद्र, नरेंद्र और नागेंद्र पद प्राप्त होते हैं ।। ११०-१११॥ तदनंतर मुनि, देव, मनुष्य आदि सब भव्यजीवोंको प्रसन्न करते हुए राजा श्रेणिक मधुरवाणी से कहने लगे कि हे भगवन् ! हे वीर प्रभो ! जिस धर्मसे स्वर्ग मोक्षके सुख प्राप्त होते हैं उस धर्मको मैं आपके मुखसे विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं ।। ११२ - ११३ ।। इसके उत्तर में वे भगवान अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा कहने लगे कि हे राजन् ! तू मन लगाकर सुन | मैं अब मुनि और गृहस्थ दोनोंके धारण करने योग्य धर्मका स्वरूप कहता हूं ।। ११४ ॥ संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए भव्यजीवोंको निकालकर जो उत्तम पदमें धारण कर दे उसको धर्म कहते हैं । धर्मका यही स्वरूप कीर्तिपूर्णदिगंतराः ॥ ११० ॥ भूरिसंपत्तिसंपन्नाः कामिनीवृंद सेविताः । सुरासुरनराधीशा जायंते धर्मिणः सदा ॥ १११ ॥ मुनींद्रदेव मर्त्यादीन् भव्यौघान् मोदयन् द्रुतम् । अथ श्रेणिकभूपालो जगाद मधुरां गिरम् ॥ ११२ ॥ वीर ! श्रीभगवन् येन स्वर्मुक्तिसुखमाप्यते । तं धर्मं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण तवमुखात् ॥ ११३ ॥ निजमनः समाधाय मुनिगृहस्थगोचरम् । इति बचोऽवदत्स्वामी शृणु वृषं महीपते ॥ ११४ ॥ मज्जतो भवपाथोधौ भव्यौघान्नुच्छ्रिते पदे । धारयतीति यो धर्मः
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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