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________________ चौथा अधिकार। [१२१ अनादि कालसे जिनंद्रदेव कहते चले आये हैं ॥ ११५ ॥ जीवोंके लिये अहिंसा धर्म सबसे उत्तम धर्म है।इसी अहिंसा धर्मके प्रभावसे प्राणियोंको चक्रवर्तीके सुख प्राप्त होते हैं ॥ ११६ ॥ इसलिये संसारके समस्त जीवोंपर दया करनी चाहिये । यह दया ही अपार सुख देनेवाली है और दुःखरूपी वृक्षोंको काट डालनेके लिये कुठारके समान है ॥११७॥ जुआ मांस आदि सातों व्यसनरूपी अग्निको बुझानेके लिये यह दया ही मेघकी धारा है, यह दया ही स्वर्गको चढ़नेके लिये नसेनी है और दया ही मोक्षरूपी संपत्तिको देनेवाली है ॥११८॥ जो लोग धर्मसाधन करनेके लिये यज्ञमें प्राणियोंकी हिंसा करते हैं वे काले सर्पके मुंहसे अमृतका समूह निकालना चाहते हैं :११.१९॥ यदि जलमें पत्थर तिरने लग जाय, यदि अग्नि ठंडी होजाय तो भी हिंसा करनेसे धर्मकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ॥१२०॥ जो भील लोग धर्म समझकर बड़े बड़े जंगलों में अग्नि लगा देते हैं वे विष खाकर जीवित प्रोक्तोसौ श्रीनिनोत्तमैः ॥११५॥ अहिंसात्परमो धर्मो जायते देहिनां सदा । प्रपद्यते क्षणायेन मानुषैश्चक्रिनं सुखम् ॥११६॥ अतो दया प्रकर्तव्या जीवेषु निखिलेप्वपि । सुखसंदोहकी वै दुःखद्रुमकुठारिका ॥११॥ सप्तव्यसनसप्तार्चिः प्रशमनघनालिका । स्वर्गरोहणनिःश्रेणिमुक्तिसंपद्विधायिका ॥११८॥ यज्ञे प्राणिवधं कुर्युर्ये सुवृषाप्तहेतवे । वांच्छंति ते सुधावृंदं कृष्णभुजंगवक्रतः ॥ ११९ ॥ जले तरंति पाषाणा यद्यग्निः शीततां व्रजेत् । तदपि जायते धर्मो हिसनान कदाचन ॥१२०॥ धर्मबुध्या महारण्ये ये किराता दवानलम् । दुदंति
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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