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________________ * सप्तम सर्ग कहा,-"अब तू मेरा अपराध क्षमा कर और इस राज्यको ग्रहण कर। तेरे भाग्यने ही तुझे यह राज्य दिलाया हैं। मैं तो अब दीक्षा लूंगा।" यह कह, राजाने वनराजको सिंहासनपर बैठा कर दीक्षा ले लो। अनन्तर प्रतापी वनराज राज्य प्राप्त कर न्याय और नीति पूर्वक प्रजा-पालन करने लगा। एक बार नन्दन उद्यानमें चार शानधारी नन्दनाचार्यका आगमन हुआ। यह जानकर वनराज अपने परिवारके साथ उन्हें वन्दन करने गया। मुनिराजको वन्दन कर उनका धर्मोपदेश सुननेके बाद वनराजने पूछा,--"भगवन् ! मैंने पूर्वजन्ममें कौनसा सुकृत किया था, जिसके कारण मुझे इस राज्यकी प्राप्ति हुई है ?" यह सुन ज्ञानातिशयसे सम्पन्न मुनिराजने कहा,-"हे राजन् ! पूर्वजन्ममें श्रद्धा और भापूर्वक जिनेश्वरकी स्तुति थी उसीसे राज्य मिला है और स्तुति करते समय तुझे बीच-बीचमें सन्देह हो जाता था कि मुझे केवल स्तुतिसे कोई लाभ होगा या नहीं ? इस सन्देहके कारण तुझे बीचबीचमें कुछ कष्ट भी उठाना पड़ा। अन्तिम समयमें तूने सोचा था कि उत्तम कुलसे क्या ? भाग्य ही श्रेष्ट है इसलिये तू दासो पुत्र हुआ।" मुनिराजको यह बातें सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया और वह पूर्व जन्मको बातें स्मरण कर सद्ध्यानमें लीन हुआ। उसने जिनधर्मपर श्रद्धा रखकर अनेक जिनवैत्य और जिन बिम्ब कराये तथा नये-नये काव्य और छंदोंसे अष्ट प्रकारको पूजाके साथ भावपूजा भी करने लगा। वह बाहरसे सभी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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