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________________ पाश्वनाथ-बरिष. आवश्यक क्रियादि करता, किन्तु अन्तमें सदा तत्वका ही चिन्तन किया करता था। अन्तमें उसने चारित्र ग्रहण कर, निरतिवार पूर्वक उसका पालन कर परमपद प्राप्त किया। इस प्रकार अनेक जीवोंने जिनपूजा द्वारा परमपद प्राप्त किया है, इसलिये जो लोग सदा जिनार्धनमें तत्पर रहते हैं, उन्हें धन्य है। पूजामें मिथ्या आडम्बर न करना चाहिये, क्योंकि सर्वत्र भाव ही प्रधान है। अब हमलोग गुरु भक्तिके सम्बन्ध विचार करते हैं । इस सम्बन्धमें श्री उपदेशमालामें कहा गया है, कि सुगति मार्गमें जो दीपकके समान ज्ञान करानेवाले हैं, ऐसे सद्गुरुके लिये अदेय क्या हो सकता है ? देखिये भिल्लने गुरुभक्तिके निमित्त शिवको एक बार अपने नेत्र किस प्रकार दिये थे। किसी पहाड़की गुफामें एक बहुत बड़ा मन्दिर था। उसमें शिव अधिष्ठायिका प्रतिमा थी। उसे अपना सर्वस्व मान कर एक धर्मनिष्ट ब्राह्मण दूरसे आकर रोज उसकी सेवा-पूजा करता था। वा उसे शुद्ध जलसे स्नान कराता, चन्दन लगाता, सुगन्धित पुष्पोंसे पूजन करता, नैवेद्य रखता, धूप देता और बादको हाथ जोडकर इस प्रकार स्तुति करता : "त्वयि तुष्टे मम स्वामिन् , संपत्स्य तेऽखिलाः श्रिया । मेव शरणं मेऽस्तु, प्रसीद परमेश्वरः!" अर्थात्-“हे स्वामिन् ! आपके प्रसन्न होनेसे मुझे सब प्रकार की सम्पत्तियें प्राप्त होगी। आप ही मेरे शरण स्थान है। परमेश्वर! मुझपर प्रसन्न हुजिये।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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