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________________ * पार्श्वनाथ-चरित्र और पुरजनोंको बड़ा ही आनन्द हुआ और वे नाना प्रकारसे आनन्द मनाने लगे। राजने दिव्य वस्त्राभूषण धारण कर योगिन के चरणोंकी पूजा की। इसके बाद उसने जोगिनसे कहा-"हे भगवतो! हे आर्ये ! कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ! आप जो आज्ञा में, वही मैं करनेको तैयार हूं।” जोगिनने कहा,-"हे राजन् ! मुझे किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं है। आपके नगरमें मुझे जो भिक्षा मिल जाती है, वही मेरे लिये यथेष्ट है, क्योंकि जिस प्रकार पवनका भक्षण करनेपर भी सर्प दुर्बल नहीं होते और शुष्क तृण खानेपर भी वनहस्ती बलवान बने रहते हैं, उसी तरह भिक्षा भोजन ही मुनियोंके लिये उत्तम है।" । ___ इसके बाद राजा और रानी हाथी पर सवार हो श्मशानसे अपने महल लौट आये। अनन्तर राजाने जोगिनके लिये नगरमें एक सुन्दर मढ़ी बनवा दिया। बहुत दिनोंतक वह वहीं कालयापन करती रही। अन्तमें, आयुक्षीण होनेपर जब उसकी मृत्यु हुई, तब वह आर्तध्यानके योगसे शुकी हुई। वह शुकी मैं ही हूं और आपके सम्मुख उपस्थित हूं। इस समय आपकी रानोको देखकर मुझे जातिस्मरणशान हो आया है। इसीसे यह सब बातें मैं आपको बतला सकी हूं। शुकीकी यह बातें सुन कर रानीको पिछली बात याद आ गयीं। उसने दुःखित हो पूछा,-“हे माता! आपको इस प्रकार शुकी क्यों होना पड़ा ?” शुकीने कहा-"है भढ़े ! इसमें भेद करने योग्य कोई बात नहीं है। अपने अपने कर्मोके अनुसार
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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