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* सप्तम सर्ग *
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प्राणियों को सुख और दुःखकी प्राप्ति हुआ ही करती है ।" इसके बाद शुकीने राजाको सम्बोधित कर कहा, "हे राजन् ! मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि विषय-वासनाके कारण पुरुष स्त्रियोंके दास होकर रहते हैं। शुकने भी इसी कारण से आपका खेत नष्ट किया है और इसीसे मैं भी अपना अपराध स्वीकार करती हूं।"
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शुकीकी यह बात सुनकर राजाको बड़ा ही आनन्द हुआ । उपने कहा - "हे शुही ! तेरा कहना यथार्थ है । तेरी बातें सुनकर मुझे बड़ा ही आनन्द और सन्तोष हुआ है । इस समय तेरी जो इच्छा हो, वह तू मांग सकती है। यह सुन शुकीने कहा"राजन् ! यदि आप वास्तव में प्रसन्न और सन्तुष्ट है तो मेरे प्रियतम का अपराध क्षमा कर, इन्हें जीवित-दान दीजिये । यही मेरी याचना और यह मेरी अभिलाषा है ।" शुकीकी यह प्रार्थना सुन रानीने राजा से कहा, ' हे राजन् ! इसे भरतार और भोजन दोनों चीजें देनी चाहिये ।" यह खुन राजाने तुरत शुकको छोड़ दिया और शालि-रक्षकोंको आज्ञा दी, कि इन दोनोंको खेतमें खाने-पीने दिया करो । राजाकी यह आज्ञा सुन शुक और शुकीको परमानन्द हुआ और वे दोनों मन-ही-मन राजाको कल्याण - कामना करते हुए अपने निवासस्थानको उड़ गये
कुछ दिनों बाद शुकाने अपने घोंसले में दो अण्डे दिये । उसी समय एक दूसरी शुकाने भी, जो उसकी सौत थी, एक अण्डा दिया । एक दिन दूसरो शुकी चुगनेके लिये बाहर गयी थी। इसी समय पहला शुकीने इर्ष्याके कारण उसका अण्डा घोंसलेसे
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