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* सप्तम सर्ग *
मरुगा, क्योंकि उसके बिना मेरा जोना कठिन हो पड़ेगा । राजाकी यह बात सुन मन्त्रियोंने शोकाकुल हो कहा, – “हे राजन् ! आप पर तो सारी प्रजाका आधार है । आपका इस प्रकार प्राणत्याग करना ठीक नहीं ।" यह सुन राजाने गद्गद् कंठसे कहा, - "प्रेमीकी इसके अतिरिक्त और गति हो ही नहीं सकती। इसलिये अब विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है । एक पल भी मुझे एक वर्षके समान प्रतोत हो रहा है। जाओ, शीघ्रही चन्दनकाष्टकी चिता तैयार करो।” यह कह राजा रानीके शवके साथ महल से बाहर निकल आया और रुदन करता हुआ श्मशान गया। वहां उसने गरीबों को खूब धन दान किया । इसके बाद ज्यों हीं वह रानी के साथ चिता प्रवेश करने चला, त्यों ही उस परिवाजिकाने आकर कहा, "हे राजन् ! ठहरिये, इस प्रकार प्राण देना ठीक नहीं ।" राजाने कहा, "हे देवि ! रानीके बिना मैं किसी तरह जी नहीं सकता ।" परिवाजिकाने कहा, -"यदि ऐसा ही है, तो जरा ठहरिये । मैं आपकी प्रियतमाको अभी सब लोगोंके समक्ष सजीवन किये देती हूं।" राजाने आनन्दित हो कहा, हे " भगवती ! आप प्रसन्न हो ! आपका कथन सत्य हो । यदि आप रानीको जिला दंगी, तो मैं समभूंगा, कि आपने मुझे भी जीवनदान दिया ।" उसी समय जोगिनने रानीको दूसरी (संजीवनी) औषधि सुधायी । सुघाते ही रानीके शरीर में चेतना शक्तिका सञ्चार हुआ और वह इस प्रकार उठ बैठी मानों निद्रासे उठ रही हो । रानीको इस तरह पुनः जीवित देखकर राजा
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