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________________ *पार्श्वनाथ चरित्र साथ तुरत ही वहां जा पहुंचा। कंडरीकको देखते ही वह उसकी वास्तविक अवस्थाको समझ गया, तथापि उसने उसे प्रणाम कर कहा-"आप पूज्य और महानुभाव हैं। आपहीको धन्य है, कि तरुणावस्थामें ऐसा दुष्कर व्रत ग्रहण किया है और शुद्ध चारित्रका पालन कर रहे हैं।” यह सुन पुंडरीक बहुत ही लजित और दुःखि हुआ और अपना मनोभाव व्यक्त किये बिना ही वह फिर वहांसे चलता बना। अब वह मुनिवेषका तो त्याग न कर सका, किन्तु चारित्र, व्रत, विनय और क्रिया आदि समस्त कर्मोंको उसने त्याग दिया। किसीने ठीक ही कहा है, कि लहसुनको; कस्तूरी, चन्दन केसर और कपूरसे ढक रखने पर भो उसको दुर्गन्ध दूर नहीं होती, उसो तरह जातिदोषसे संगठित स्वभाव कभी नहीं बदलता।पुंडरीकने यथेष्ट प्रेरणा को, किन्तु फंडरीकपर उसका कोई स्थायी प्रभाव न पड़ा। वर्षाके बाद वह फिर उसी तरह वहां आया और पुंडरीकको अपने पास बुला भेजा। उसी समय राजा आया और उससे कहाने लगा कि-"हेमहानुभाव ! संयम रूपी मेरू पर आरोहण कर आप फिर किस लिये अपनी आत्माको नीचे गिरा रहे हैं ? राज्यादि सम्पत्ति तोसुलभ है-इसे प्राप्त करना बायें हाथका खेल है, किन्तु जिन धर्म प्राप्त करना बहुत ही कठिन है।" कंडरीकने इस बार साहस कर सब बातें स्पष्ट कह दी। उसने कहा,-"हे बन्धो! यह सब उपदेश अब मेरे लिये बेकार है। मैं दोक्षासे बाज आया। इस दुष्कर व्रतका पालन कर
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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