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* षष्ठ सर्ग *
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वसन्त ऋतु थी अतएव अनेक मनुष्य क्रीड़ा करनेके लिये वहां गये हुए थे । कोई नृत्य और हास्य कर रहा था, कोई विनोद कर रहा था, कोई बाजे बजा रहा था तो कोई और ही किसी प्रकारके विनोदमें व्यस्त था । इसी समय कंडरीकका व्रत विघातक चारि त्रावरणीय कर्कश कर्म उदय हुआ। वह अपने मनमें कहने लगा, “ अहो ! इन लोगों को धन्य है, जो घर में रहकर सांसारिक सुख उपभोग करते हैं, नृत्य और गायन वादनका आनन्द लेते हैं और इच्छानुसार आहार करते हैं। मैं तो दीक्षा ग्रहण कर नरकके समान दुःख भोग कर रहा हूँ । मुझे एक क्षण भरके लिये भी सुख नहीं है । तुच्छ और शीतल, जला या कच्चा, भला या बुरा जो कुछ मिलता है, वह खाना पड़ता है और कठिनपरिषह सहन करना पड़ता है । यह नरकके समान दुःख कहांतक भोग किये जायें ? ऐसा दीक्षासे बाज आये । अब तो भाईसे मिलकर पुनः राज्यका स्वीकार करना चाहिये और जितनी जल्दी हो, इस दुःखी जीवनका अन्त लाना चाहिये ।" इन विचारोंके कारण कंडरीकका मन खराब हो गया और उसके भाव बिगड़ गये । उसकी यह बता अन्यान्य मुनियोंसे छिपी न रह सकी । अतः उन्होंने शीघ्र ही उसका त्याग कर दिया और गुरुने भी उसकी उपेक्षा कर दी ।
इसके बाद कंडरीक अपनी नगरीमें पहुंचा और एक उद्यानको हरी जमीनपर डेरा डाल कर उद्यानपालकको पुंडरीकके पास भेज कर उसे अपने पास बुला भेजा । उद्यानपालकके मुंहसेकंडरीकका आगमन समाचार सुन राजा अपनी सेनाके