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________________ * चतुर्थ सर्ग * २६५ यात्रा और मानतादि करना लोकोत्तर मिथ्यात्व कहलाता है । संक्षेपमें सम्यकत्व और मिथ्यात्वका स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिये : "या देवे देवताबुद्धि-गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्म धीः शुद्धा, सम्यक्त्व मुपलभ्यते ॥ प्रदेषे देवताबुद्धिर्गु रुधीरगुरौ च या । धर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्व मेतदेव हि ॥" अर्थात्- “सुदेव में देवबुद्धि, सुगुरुमें गुरुबुद्धि और सुधर्ममें शुद्ध धर्म बुद्धि रखनेको सम्यक्त्व कहते हैं और कुदेवमें देवबुद्धि, कुगुरुमें गुरुबुद्धि और कुधर्ममें धर्मबुद्धि रखनेको मिथ्यात्व कहते हैं। " 1 मिथ्यात्व सर्वथा और सर्वदा त्याज्य है ! मिथ्यात्व से जीव अनन्तकाल तक संसारमें भ्रमण करता है । इसलिये केवल सम्यक्त्वको ही अंगीकार करना चाहिये । किसीने कहा है कि जो केवल अंतर्मुहूर्त सम्यक्त्व धारण करते हैं, उनके लिये संसार अर्द्ध पुद्गल परावर्त मात्र रह जाता है। करोड़ों जन्मके बाद कहीं मनुष्यका जन्म प्राप्त होता है इसलिये इसे व्यर्थ न गँवाकर धर्मकी आराधना में सदा तत्पर रहना चाहिये । धर्माराधनका अवसर मिलनेपर, विवेकी पुरुषको उसमें किसी भी कारणसे प्रमाद न करना चाहिये । हे महानुभाव ! इस असार संसारमें केवल धर्मही 1 सार है, इसलिये धर्मकी ही अराधना करनी चाहिये । इस प्रकार एकाग्र चित्तसे जिनेश्वर के वचनामृतका पान
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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