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________________ २६६ * पार्श्वनाथ-चरित्र * करते हुए चक्रवर्ती सुवर्णबाहुको जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो आया इसलिये उसी समय उसे अपने पूर्वजन्मके आराधित चारित्रकी याद आयी इससे उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने निर्णय किया कि अब मैं राज-काजको झंझटों में न पड़कर केवल मोक्षहीके लिये यत्न करूंगा ।" यह निश्चय कर उसने पंचमुष्ठि लोच किया और जगन्नाथके निकट दीक्षा ग्रहण की । इसके बाद निरतिचार चारित्रका पालन करते हुए ग्यारह अंगोंका भलो भांति अध्ययन कर वे क्रमशः गीतार्थ हुए और बाईस परिषह सहन करने लगे। कुछ दिनोंके बाद जिनेश्वरकी आज्ञा प्राप्त कर वे एकाकी विहारकर धर्मध्यान द्वारा कर्मोंका क्षय करने लगे। इसके बाद उन्होंने इस प्रकार बीस स्थानकोंकी आराधना आरम्भ की (१) अरिहन्त (२) सिद्ध (३) प्रवचन (४) गुरु (५) स्थविर (६) बहुश्रुत (७) तपस्वी - इन सातोंकी भक्ति करना (८) बारम्बार ज्ञानका अभ्यास करना (६) दर्शन (१०) विनय (११) आवश्यक (१२) ब्रह्मचर्य (१३) क्रिया (१४) क्षणलवतप (१५) ध्यान (१६) वैयावश्च (१७) समाधि (१८) अपूर्वज्ञान ग्रहण (१६) सूत्र भक्ति और (२०) प्रवचनकी प्रभावना - इन बीस स्थानकोंके आराधनसे जीवको तीर्थ कर पदकी प्राप्ति होती है । एक बार सुवर्णबाहु मुनीश्वर विहार करते हुए क्षीर-गिरिके निकट एक अरण्य में जा पहुँचे । इसी जंगल में कमठका जीव कुरंगक भिल्ल नरकसे निकलकर सिंहकी योनी में उत्पन्न हुआ था ।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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