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________________ २५४ * पार्श्वनाथ चरित्र * वहां तू विचरण कर सकता है । तुझे अब कहीं भी जानेका प्रतिबन्ध नहीं है । यह कहकर उसने सत्कार पूर्वक उसे बिदा किया । मन्त्रीपुत्र अब राजाके महलमें नित्य आने जाने और स्वच्छन्दता पूर्वक विचरण करने लगा । एक बार उसने राजाके खजानेमें प्रवेश किया। वहां एक मोतीका हार देखकर उसके चित्तमें लोभ हुआ अतः उसने उसे चुरा लिया । अनन्तर उसे छिपाकर वह बाहर निकलने लगा । इसी समय विवेकके कारण उसे विचार आया कि अहो, मुझे धिक्कार है ! मैंने यह क्या कर डाला ? संसारमें चोरीके समान दूसरा कोई पापही नहीं है । यह सोचकर वह उलटे पैरों लौट गया और उस हारको फिर वहीं भाण्डारम रख अपने घर लौट आया । एक बार वह खेलते-खेलते राजाके अन्तःपुर में चला गया । वहां रानी उसे देखकर मोहित हो गयी । उसने सुमतिको एकान्त में बुलाकर उससे अनुचित प्रस्ताव किया। सुमति पहले तो इसके लिये राजी हो गया, किन्तु ज्यों ही इसके लिये अग्रसर हुआ त्योंहीं विवेकने उसे रोक लिया । वह अपने मनमें कहने लगा"अहो, मुझे धिक्कार है, कि माताके समान राजपत्नीकी बात सुन - कर मेरे चित्तमें भी विकार उत्पन्न हो गया । पर स्त्रीके संगसे इस जन्म में शिरच्छेद आदिकी राजा और उस जन्ममें नरकका दुःख प्राप्त होता है । इसलिये संसार में वही बड़ा और वही पण्डित है जो इन साँपके समान कुलटाओंसे दूर रहता है । मैं आजसे पर स्त्रीको बहन के समान समभूंगा और भूलकर भी इस तरह किसी -
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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