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________________ * तृतीय सगे * २५३ देती हैं। जो धन भोगमें व्यय किया जाता है, वह भी नाश हो होता है। कहा भी है कि धनकी एक मात्र गति दान हो है। धनको धर्मार्थ सत्पात्रको देना सर्वोत्तम है। दुःखित यायकको देनेसे कीर्ति बढ़ती है, बन्धुओंमें उपयोग करनेसे प्रेम बढ़ता है, भूतादिको देनेसे विघ्नोंका नाश होता है। इस प्रकार उचित उपयोग करनेपर लाभ ही होता है। दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता। भोगसे केवल ऐहिक सुखोंकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नाश तो होता ही है।" पुत्रकी यह बातें सुनकर विचार चतुर मंञीको बड़ाही आनन्द हुआ। उसने यह सारा हाल राजाको कह सुनाया। राजाने कहा-“हे भद्र! उसके हृदयमें अब विवेकरूपी सूर्यका उदय हुआ है। अब वह मेरे और तुम्हारे सभोके मनोरथ पूर्ण करेगा। उसका विचार गम्भीर्य, उसकी चतुराई और उसकी अद्भुत मति निःसन्देह प्रशंसनीय है। उसकी बुद्धि गुरु और शास्त्रसे भी आगे दौड़ लगा रही है। मैं समझता हूं कि उसे अब पूर्ण ज्ञान हो गया है अतएव उसे हाथीपर बैठाल कर मेरे पास ले आओ।" यह कह राजाने उसी समय उसे लिवा लानेके लिये एक हाथी और कई अनुचरोंको भेज दिया। मन्त्री भी खुश होता अपने घर गया और पुत्रको वस्त्राभूषणसे सज्जित कर मंगलाचार पूर्वक राजाके यहां ले गया। उसके आनेपर राजाने बड़े प्रेमसे उसे बुलाकर अपने पास बैठाया और उसका नाम सुमति रखा। इसके बाद राजाने उससे कहा-"सुमति ! आजसे मेरे महलमें जहां तेरी इच्छा हो,
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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