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________________ * तृतीय सर्ग * को बातोंमें न आऊँगा। इस तरह सोचता हुआ, वह राज पत्नोसे क्षमा प्रार्थना कर अपने घर लौट आया। ___ एक बार वह घूमता-घूमता कहीं जुआरियोंके पास जा निकला। वहाँ उसने देखा कि कोई जूआरी लड़ रहा है, कोई अपना धन खो रहा है, कोई हंस रहा है, कोई रो रहा है और कोई चोरोकी फिक्र कर रहा है। यह देखकर उसे द्यूतके प्रति घृणा उत्पन्न हुई। वह अपने मनमें सोचने लगा–“यह वही तो हुर्व्यसन है, कि जिसके कारण एक मनुष्य क्षण भरमें अमीरसे फकीर हो जाता है । जिसके कारण मनुष्य किसी कामका नहीं रहता। इसो व्यसनसे नलराजाको भो राजसुखसे पृथक हो जाना पड़ा था। अतएव इस व्यसनका तो नाम लेना भी महापाप है। यह सोचकर वह उसी समय वहांसे अपने घर चला आया। एक बार वह विचरण करता हुआ राज सभामें जा पहुंचा। उसे आते देख राजाने बड़े प्रेमसे बुलाकर उसे अपने पास बैठाया। अनन्तर सुमतिने अवसर देखकर राजासे कहा-“हे स्वामिन् ! नोतिशास्त्रमें कहा है कि किसीका विश्वास न करना चाहिये। फिर भी आप मुझपर इतना विश्वास क्यों रखते हैं ? निःसन्देह आप यह अच्छा नहीं करते।" यह सुनकर राजाने कहा-“हे वत्स! तेरा जन्म देवीके वरदानसे हुआ है और तू हमारा वंश परम्परागत मन्त्री है, इसलिये मैं तेरा विश्वास न करूं तो और किसका करूँ ? तुझे देवीने विनय और विवेक-यह दो गुण दिये हैं। वह सदा तेरी सहायता करेंगे।" राजाको यह बात सुन ।।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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