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________________ * तृतीय सर्ग * ૨૪૩ में परिगणित किये गये हैं । इन लक्षणोंसे युक्त जितने भी अनन्तकाय दिखायी दें, उन सबका त्याग करना चाहिये । आगममें कहे गये लक्षणोंसे और भी कई अनन्तकाय होते हैं । यथा :" चतस्रोनरक द्वाराः, प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्री गमनं चैव, संधानानंतकायिकाः ॥” अर्थात् -“रात्रि भोजन, परस्त्री गमन, आचार और अनन्तकाय यह चारों ही नरकके द्वार हैं ।” अनन्तकायादि अभक्ष्योंका अवित्त अवस्थामें भी त्याग करना चाहिये। ऐसा करनेका कारण यह है, कि अचित्त में इनका रसास्वादन करनेपर लोलुपता बढ़ सकती है और उसके कारण सचित्त अवस्थामें भी इनके व्यवहारकी ओर प्रवृत्ति हो सकती है । इसी लिये अवित्त अवस्थामें भी इनका व्यवहार करना वर्जनीय माना गया है। कहा भी है कि एक जन अकार्य करता है, उसे देखकर दूसरा करता है और इसी तरह होते-होते संयम और तपका विच्छेद हो जाता है । ३२ अनन्त कायोंका रूप समझकर इनका त्याग करना चाहिये । इस प्रकार इसके अतिरिक्त आलस्यादिके कारण घी तेल आदिके बर्तन खुले रखना, दूसरा मार्ग होनेपर भी घासवाली जमीनपर चलना, बिना मार्गकी जमोनपर चलना, स्थानको देखे बिना हाथ डालना, अन्य स्थान होनेपर भो सवित्त जगहपर बैठना या वस्त्र रखना, कीड़े मकोड़ों से युक्त जमीनपर मूत्र त्याग करना, अच्छी तरह देखे बिना दरवाजे में पटेला आदि लगाना, पत्र पुष्पादिको वृथा तोड़ना, मिट्टी और खड़िया आदिको मर्दन करना, आग सुलगाना, गाय
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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