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________________ २४४ * पार्श्वनाथ चरित्र * आदिका घात हो ऐसे शस्त्रों का व्यापार करना, हास्य किंवा निन्दा करना, प्रमाद पूर्वक बिना उपयोगके स्नान करना, केश गूंथना, कूटना, भोजन बनाना, जमीन खोदना, मिट्टीका मर्दन करना लोपना, वस्त्र धोना और लापरवाहीसे पानी छाननाप्रभृति कार्य करनेसे भो प्रमादाचरणका दोष लगता है । श्लेष्मादिकमें मुहूर्तके बाद संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं और इनकी विराधनाका दोष लगता है, इसलिये उसके सम्बन्ध में भी सावधानी रखनी चाहिये। श्रीपन्नवणा उपाङ्गमें, संमूर्छिम मनुष्य कहां उत्पन्न होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवानने बतलाया है कि पैतालिस लाख योजन प्रमाण मनुष्य क्षेत्रमें अर्थात् ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें संमूर्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। ढाई द्वोपमें भी पन्द्रह कर्मभूमिमें, तीस अकर्म मूमिमें, छप्पन्न अन्तद्वोर्पमें, गर्भज, मनुष्योंकी विष्ठामें, मूत्रमें, नाकके मैलमें, पित्तमें, वीर्यमें, शोणितमें, वीर्यके पुद्गलोंमें, शवमें, स्त्री पुरुषके संयोगमें, नगरके पन्नालोंमें और सभी गन्दे स्थानोंमें संमूछि म मनुष्य उत्पन्न होते हैं। उनकी अवगाहनाऊंचाई अंगुलके असंख्यातवे हिस्से के बराबर होती हैं । वे असंशी, मिथ्या दृष्टि, एवम् अज्ञानी होते हैं और अपर्याप्त अवस्था में ही अन्तर्मुहूर्त में मर जाते हैं। इस संसारमें भ्रमण करनेवाले प्राणियोंको ऐसे अधिकरणोंका भी त्याग करना चाहिये, जिनसे जीव वधादि अनर्थ होनेको सम्भावना हो । कहा भी है कि :--
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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