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________________ * द्वितीय सर्ग करती और सदा मौन रहती थी। इससे बनजारेको उसका सतीत्व नष्ट करनेमें सफलता न मिल सकी। रानी दुःख पूर्वक किसी तरह दिन निर्गमन करने लगी। इधर राजाको रानीके विना असीम दुःख होने लगा। वह अपने मनमें कहने लगा-"अहो ! मेरा हृदय कितना कठोर है, कि मैं अपने ही दुःखका विचार करता हूँ और रानीके दुःखका विवार भी नहीं करता! वह बिचारी इस समय न जाने कहां होगी और क्या करती होगी! हे दैव ! तेरी गति बड़ीही विचित्र है।” यह सोचकर राजा किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया। इसी समय वहां श्रोसार आ पहुंचा। उसने राजाको उदास देखकर पूछा“हे भद्र ! तू आज चिन्तित क्यों दिखायी देता है ? राजा लज्जावश उसके इस प्रश्नका कुछ भी उत्तर न दे सका। अन्तमें आसपासके लोगों द्वारा श्रीसारको यह सब हाल मालूम हुआ। उसने राजाको सान्त्वना देते हुए कहा-“हे महाभाग ! अब क्या हो सकता है ! कर्मकी गति वड़ो ही विषम है। किसीने कहा भी है, कि वर्धमान महावीर जिनका नीच गोत्रमें जन्म, मल्लिनाथ को स्त्रीत्वकी प्राप्ति, ब्रह्मदत्तको अन्धता, भरतराजाका पराजय, कृष्णका सर्वनाश, नारदको निर्वाण और चिलाती पुत्रको प्रशमका परिणाम प्राप्त हुआ। कर्मकी ऐसी ही गति है। तुम धैर्य धारण करो और किसी प्रकारकी चिन्ता न करो। अब तुम्हारे भोजन शयन आदिका प्रबन्धः मैं अपने सिर लेता हूँ। तुम आजसे मेरे बनवाये हुए चैत्यमें त्रिकाल पूजा किया फरो
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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