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________________ १६२ * पार्श्वनाथ-चरित्र * और अपने पुत्रोंसे कह दो, कि वे मेरे लिये मेरी पुष्प वाटिकासे पुष्प ले आया करें।" राजाने श्रीसारको यह बात स्वीकार कर लो। दूसरे ही दिनसे वह चैत्यमें त्रिकाल पूजा करने लगा और राजकुमार पुष्प ला देने लगे। यहो अब इन लोगोंकी दिनचर्या हो गयी। श्रीसार इनके कार्य से बहुत ही प्रसन्न रहता था और यथा सम्भव इन्हें किसी प्रकारका कष्ट न होने देता था। इस प्रकार दुःख होनेपर भी एक तरहसे शान्ति पूर्वक राजाके दिन व्यतीत हो रहे थे। एक दिन श्रीसार अपनी पुष्प वाटिका देखने गया। वहां उसने देखा कि दोनों कुमार हाथमें धनुष-वाण ले, शिकारीको तरह पक्षियोंको अपने बाणका निशाना बना रहे हैं। इस पापकर्मको देखकर श्रीसारको बड़ा क्रोध आया और उसके कारण उसकी आंखें लाल हो गयीं। उसने दोनों राजकुमारोंको बड़ी ताड़ना तर्जना की और उनके धनुष-बाण तोड़कर उन्हें वाटिकासे बाहर निकाल दिया। किन्तु इतनेहीसे उसका क्रोध शान्त न हुआ। उसने राजाके पास जाकर कहा-“हे भद्र! तेरे पुत्र बड़ेही पापी है। अब तेरा एक क्षण भी यहाँ गुजारा नहीं हो सकता। तू इसी समय मेरा घर खाली कर दे और जहां इच्छा हो, चला जा।” श्रीसारके यह वचन सुनकर राजाके सिरपर मानो वज्र टूट पड़ा। वह अपने मनमें कहने लगा-“हे दुर्दैव! तुझसे मेरा यह यत्किञ्चित सुख भो देखा न गया! इसी समय दोनों राजकुमार रोते हुए वहां आ पहुँचे। राजाने उन्हें सान्त्वना
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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