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कल्पान्तर्वाच्यः ।
नेमिनाथस्य दीक्षा उवलक्खओ मा एसा इत्तिय-मित्तेण अम्ह संतोसो। जइ एस पियसहिए पाणिग्गहणं कुणइ नेमी।।७४५ ।। हद्धी सहिओ किं मे कारणं चक्खू दक्खिणं फुरइ । सहिओ भणंति पडिहयममंगलं भवउ ते सुयणि!॥७४६॥ इत्यंतरंमि नेमी पसूणमत्तस्सरं सुणित्ताणं । हं हो! दारुय एसो को सद्दो सवणदुक्खयरो।।७४७॥ सो भणइ सामि! तुम्हं सयणाणं गोरवस्स कज्जेणं। पसवो अमी वराया मीलिया संति भयभीया।।७४८॥ अहह सोऽयमसक्कं चरित्तमपवित्तचित्तवित्तीणं । जे कुव्वंति निउच्छवमणुच्छवेणऽवर-जंतूणं ।।७४६॥ तो सारहिं पयंपइ रहं नियत्तेहि सिग्यमेव इओ। ता तत्थेगो हरिणो हरिणी-गीवं सगीवाए॥७५०॥ मा पहरसु मा पहरसु! एयं मह हियय-हारिणिं हरणिं। सामी! अज्ज मरणा वि दुस्सहो पिययमाविरहो।।७५१ ॥ हरिणी नेमि-मुहं चिय सुपसण्णं पासिउं इमं भणइ। एसो पसण्ण-वयणो अकारणो उत्तमो बंधू ।।७५२॥ ता विण्हवेसु वल्लह ! रक्खत्थं सव्वजीवरासीणं । तो मुह-मुद्धं किच्चा भणइ य हरिणो इमं वयणं ।। ७५३ ॥ निज्झरण-नीर-पाणं अरण्ण-तिण-भक्खणं च वणवासो। अम्हाण निरवराहाणं जीवियं रक्ख रक्ख पहू!॥७५४ ॥ एवं सव्वे पसवो कुणंति पुक्का-रवं तओ नेमी। पसुरक्खिए पयंपइ मुंचह मुंचह इमे जीवे ।।७५५ ॥ मोयावित्ता वलिओ नाओ य समुद्रविजय-पमुहेहिं। खलिए रहे य नेमी भणइ इमं वयणमइदक्खं ।।७५६ ॥ जह बंधणेहिं बद्धा एए तह वयं कम्मबंधेहिं। तम्मोक्खत्थं दिक्खं अहं गहिस्सामि मोक्ख-पयं ॥७५७॥ राईमई सुणित्ता तं वत्तं विगय-चेयणा पडइ। धरणीयले य पच्छा आगय-सण्णा भणइ एवं ॥७५८ ॥