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________________ ३८ ] महावीरस्य प्रव्रज्याग्रहणेच्छा वीरस्स जिट्ठ-भाया अहिसित्तो नंदिवद्धणो कुमरो । वर - राय - लक्खण-धरो रज्जे सामंत-मंतीहिं ॥ ४१६ ॥ वीरो वि नंदिवद्धण-पमुहं आपुच्छइ सयणवग्गं । पव्वज्जागहणत्थं पडणाभिग्गहत्तेण ।। ४१७ ॥ तो भइ जिट्ठ-भाया मम जणणी - जणय - विरह - दुहियस्स । तुह विरहग्गी सुंदर ! खयंमि खारोवमो होइ ॥ ४१८ ॥ एवं भणिए जिद्वेण भाउणा परम-पणय-कलिएणं । तस्सेव बोहणत्थं भणइ जिणो भवविरत्त-मणो ॥ ४१६ ॥ as - पिच्छणए पिच्छय जणाण जह दीहरो न जाओ । तह बंधु - समाजोगो अथिरुच्चिय होइ संसारे ॥। ४२० ।। किं च...... वीरो- पिय-माय-भाय-भयणी-भज्जा - पुत्तत्तणेण सव्वे वि । जीवा जाया बहुसो जीवस्स य एगमेगस्स ।। ४२१ ॥ ता कंमि कंमि कीरइ पडिबंधो कंमि कंमि वा नेय । इय नाऊण महायस! मा किज्जउ सोग-संतावो ॥ ४२२ ॥ नंदीवर्धन- अहमवि जाणामि इमं किंतु ममं बंधणाई तुर्हति । जीविय-भूएण तए अज्ज वि मुक्कस्स सयराहं ।। ४२३ ।। ता मह अवरोहेणं वासाई दुण्णि चिट्ठसु गिमि । उत्तम - पुरिसा दुहियं दद्धुं करुणायरा हुंति ॥ ४२४ ॥ एवं होउ नरेसर ! किंतु ममऽट्ठा न कोई आरंभो । कायव्वोऽहं फासूय-भोयण- पाणेण चिट्ठिस्सं ॥ ४२५ ॥ एवं चि पडिवणे चिट्ठइ सुहज्झाण-भावणो वीरो । विसय- सुह-निष्पिवासो दयावरो सव्व-जीवेसु ॥ ४२६ ॥ तो साहिय-वास- दुगं अपिबंतो सीयलं जलं सामी । कासि नो सव्वण्हाणं सुद्ध-जलेणाऽसि बंभवओ ।। ४२७ ॥ लोयट्ठि - रक्खणट्ठा कर पाए धोवइ विसुद्धेण । दिक्खा समये सचित्त- जलेणऽकासी सव्व - सिणाणं ।। ४२८ ।। कल्पान्तर्वाच्यः
SR No.023172
Book TitleKalpantarvcahya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherSharadaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1997
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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