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________________ कल्पान्तर्वाच्यः ] वीरलेखशालामहः [ ३७ जं वीरस्स जिणस्स पाढणकए जं लेहसाला कया; इच्चेयं हरिणा पसंसियमहो! वीरोऽत्थु सेयंकरो। ४०३ ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् गाऊ पुरओ माउल-वण्णणं लहरीयं च लंकाए। लवणं लवण-समुद्दस्स पाहुडं तह य जिणपाठो॥ ४०४ ।। अनध्ययन-विद्वांसः निर्द्रव्य-परमेश्वराः। अनलङ्कार-सुभगाः पान्तु युष्मान् जिनेश्वराः॥ ४०५॥ गंभीरया जिणंदस्स दक्खत्तं च तहापहो। जं जाणंतोऽवि सव्वत्थं नाइक्खइ महायसो ।। ४०६ ।। सक्को माहण-रूवो समागओ तत्थ लेहसालाए। तं गुरु-जुग्गासणये ठावित्ता पुच्छइ सद्दे ।। ४०७॥ तस्संदेहे तत्तो भयवं तह वागरेइ सो सुणइ। गय-संदेहो विप्पो चिंतइ बालस्सऽहो! बुद्धी ।। ४०८ ॥ तो वयइ देवराओ विप्प! तुम बालयंति मा चिंते। एसो महाणुभावो भव्वं भूयं वियाणेइ ।। ४०६॥ इच्चाइय कहित्ता लोग-समक्खं च संथवं काउं । पणमित्ता वीर-जिणं पत्तो सक्को सट्ठाणंमि ॥ ४१०॥ अप्पित्ता भूरि-धणं राया-सिद्धत्थओ य विप्पस्स । वीर-जिणंद-समेओ पत्तो सगिहं महमहेणं ॥ ४११॥ इति वीर-लेखशाला-महः उम्मुक्क-बालभावो कमेण अह जोव्वणं समणुपत्तो। भोग-समत्थं नाउं अम्मा-पियरो य वीरस्स ।। ४१२ ॥ तिहि-रिक्खंमि पसत्थे महंत-सामंत-कुल-पसूयाए। कारंति पाणिगहणं जसोय-वर-रायकन्नाए। ४१३॥ पंचविहे माणुस्से भोए भुंजित्तु अह जसोयाए। तेयसिरिं वसुरूवं जणइ पियदंसणं धूयं ॥ ४१४ ॥ परिणीया समयंमि य जमालिणा पवर-नरवइ-सुएण। वीरस्सऽम्मा-पियरो दिवंगया इत्थ-समयंमि ॥ ४१५ ॥
SR No.023172
Book TitleKalpantarvcahya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherSharadaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1997
Total Pages132
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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