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________________ (६३३) संडासगे पमजिअ, उवविसिअ अलग्गविअयबाहुजुगो । मुहणंतगं च कायं, च पेहए पंचवीसइहा ॥ ६ ॥ अर्थः-संडासक पूंज कर नीचे बैठ दोनों भुजाएं शरीरसे अलग लम्बी कर मुहपत्ति तथा कायाकी पच्चीस पच्चीस पडिलेहणा करना. ॥६॥ उट्टि ठिओ सविणय, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्मं ॥ बत्तीसदोसरहिअं, पणवीसावस्सगविसुद्धं ॥ ७॥ अर्थः--उठकर खडे रहकर विधिपूर्वक गुरुको कृतिकर्म ( वन्दना ) करे. उसमें बत्तीस दोष टालना, और पच्चीस. आवश्यककी विशुद्धि रखना. ॥७॥ अह संममवणयंगो, करजुअविहिधरिअपुत्तिरयहरणे ॥ परिचिंतिअ अइआरे, जहक्कम गुरुपुरो विअडे ॥ ८ ॥ अर्थः--पश्चात् सम्यक् गीतसे शरीर नमाकर दोनों हाथमें यथाविधि मुहपत्ति और रजोहरण अथवा चरवला लेकर गुरुके सन्मुख स्पष्टतासे अतिचारोंका चितवन करना. ८॥ अइ उवविसित्तु सुत्त, सामाइअमाइअं पढिय पयओ । अब्भुट्टिअम्हि इच्चा इ पढइ दुहउढिओ विहिणा ॥ ९ ॥ अर्थः- पश्चात् नीचे बैठकर सामायिक आदि सूत्र यतनासे कहे । तत्पश्चात् द्रव्य भावसे उठकर "अब्भुट्टिअम्हि" इत्यादि पाठ विधि पूर्वक कहे।
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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