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संडासगे पमजिअ, उवविसिअ अलग्गविअयबाहुजुगो । मुहणंतगं च कायं, च पेहए पंचवीसइहा ॥ ६ ॥
अर्थः-संडासक पूंज कर नीचे बैठ दोनों भुजाएं शरीरसे अलग लम्बी कर मुहपत्ति तथा कायाकी पच्चीस पच्चीस पडिलेहणा करना. ॥६॥
उट्टि ठिओ सविणय, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्मं ॥ बत्तीसदोसरहिअं, पणवीसावस्सगविसुद्धं ॥ ७॥
अर्थः--उठकर खडे रहकर विधिपूर्वक गुरुको कृतिकर्म ( वन्दना ) करे. उसमें बत्तीस दोष टालना, और पच्चीस. आवश्यककी विशुद्धि रखना. ॥७॥
अह संममवणयंगो, करजुअविहिधरिअपुत्तिरयहरणे ॥ परिचिंतिअ अइआरे, जहक्कम गुरुपुरो विअडे ॥ ८ ॥
अर्थः--पश्चात् सम्यक् गीतसे शरीर नमाकर दोनों हाथमें यथाविधि मुहपत्ति और रजोहरण अथवा चरवला लेकर गुरुके सन्मुख स्पष्टतासे अतिचारोंका चितवन करना. ८॥
अइ उवविसित्तु सुत्त, सामाइअमाइअं पढिय पयओ । अब्भुट्टिअम्हि इच्चा इ पढइ दुहउढिओ विहिणा ॥ ९ ॥
अर्थः- पश्चात् नीचे बैठकर सामायिक आदि सूत्र यतनासे कहे । तत्पश्चात् द्रव्य भावसे उठकर "अब्भुट्टिअम्हि" इत्यादि पाठ विधि पूर्वक कहे।